________________ कर्मबंधन की प्रक्रिया को जन्म देता है और मिथ्यात्व के अंधकार में भटकता रहता है। तत्त्वदृष्टि नामक अष्टक में इस तत्त्व का निरूपण किया गया है। __ बाह्य दृष्टि से विमुख हुआ आत्मा अन्तर-दृष्टि के प्रयोग के कारण अन्तर की विपुल समृद्धि का स्वामी बन जाता है। इसी कारण तत्वदृष्टि अष्टक के बाद सर्वसमृद्धयष्टक का कथन किया गया। जो साधक कर्म और कर्म के परिणामों का सदा चिंतन करता है, वह राग द्वेष से मुक्त होकर समभाव में विचरण करता है। कर्म ही हंसाता है, कर्म ही रुलाता है, इस प्रकार जो कर्म के परिपाक से साक्षात्कार कर लेता है वह व्यक्ति फिर कर्म में न फंस कर आत्म-भाव में डूब जाता है। यह चिंतन देता है-कर्मविपाकचिंतनाष्टक ! कर्म-विपाक की विचित्रता का चिंतन करता हुआ साधक संसार के प्रति उद्विग्न/उदासीन हो जाता है। फिर वह जल्दी से जल्दी संसार दशा से मुक्त होने के प्रति चिंतनशील और क्रियाशील हो जाता है। भवोद्वेगाष्टक में इन्हीं तथ्यों का खुलासा किया गया है। जो जीव संसार के प्रति उदासीन हो गया वह फिर लोक संज्ञा में आसक्त नहीं होता। उसकी क्रिया लोक दिखावे के लिये नहीं आत्मा के लिये होती है। उसका आचार सहज बन जाता है। वह लोक से प्रभावित नहीं होता। लोकसंज्ञात्यागाष्टक उन लोगों के सामने लाल बत्ती रखता है जो भेद विज्ञान की बातें करते हैं पर लोक संज्ञा में डबे हैं। अनासक्त साधक शास्त्रों के आधार पर अपने जीवन और आचार का निर्माण करते हैं। आप्त पुरुषों की वाणी ही शास्त्र कहलाती है। इसका विवेचन शास्त्राष्टक में पूज्य उपाध्यायजी म. ने किया है। परिग्रह ही मूर्छा का आधार है। शास्त्रों में मूर्छा को ही परिग्रह कहा है। यह मूर्छा ही संसार बढ़ाती है। इसका त्याग किये बिना आत्ममहल की दिशा में आगे नहीं बढा जा सकता। इसलिये परिग्रहत्यागाष्टक का विधान किया गया।