________________ की गुलामी हमें कितनी खतरनाक स्थिति में पहुंचा सकती है, इसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है। हेमचंद्राचार्य ने संसार की परिभाषा देते हुए योगशास्त्र में कहा है क्रोध, मान, माया और लोभ तथा इन्द्रियों की गलामी में आसक्त आत्मा ही संसार है और इन पर विजय प्राप्त करना ही मोक्ष है। औदयिक भाव रूप गृहस्थाश्रम से संबंधित धर्मों का त्याग किये बिना इन्द्रियों पर विजय पाना संभव नहीं है, अत: इन्द्रिय जयाष्टक के बाद त्यागाष्टक का कथन किया गया है। अनादि अनंत काल के इस संसार के परिभ्रमण में जीव अनेक जीवों से संबद्ध होता है। यह संयोग बाद में वियोग में बदल जाता है। यह जानते हुए भी जीव उन संबंधों के प्रति आसक्त हो जाता है और इस कारण दुःखी बनता है। जो हमारा नहीं है या जिनका संबंध समाप्त हो जाने वाला है, उनके प्रति राग भाव का त्याग करना ही आत्म-स्वभाव की परिणति का मुख्य आधार है। इसके बाद क्रियाष्टक कहा गया है। क्रिया के अभाव में आत्म-धर्म में स्थिरता नहीं आती। 'ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः' . अर्थात् ज्ञान और क्रिया की युति ही मोक्ष का कारण है। तृप्ति अष्टक में आत्म-भाव की पूर्णता का दर्शन है। आत्म-रुचि जगते ही समस्त प्रकार की अतृप्तियों का अन्त हो जाता है और आत्मा परिपूर्ण तृप्त भावों में मग्न हो जाता है। यह निश्चित तथ्य है कि जो आत्म-भावों में तप्त हो गया वह निर्लिप्त रहता है। संसार को काजल की कोठरी की उपमा दी गई है। उसमें जो भी रहेगा उसे दाग लगेगा ही। परन्तु जो आत्म-भाव में डूब गया वह ऐसी स्थिति में भी अलिप्त रह सकता है। महामनीश्वर श्री स्थूलिभद्र जैसे महापुरुष का उदाहरण इन भावों की पुष्टि का प्रेरक और जीवंत प्रतीक है। निर्लेपाष्टक इन्हीं भावों को स्वर देता है। निर्लिप्त साधक को संसार इष्ट नहीं होता। अत: उसे किसी भी पदार्थ की कोई स्पृहा नहीं होती। उसे मात्र स्वरूप-बोध ही इष्ट होता है।