________________ इन भावों की पुष्टि के लिये निर्लेपाष्टक के बाद नि:स्पृहाष्टक कहा गया है। बाहर से नि:स्पृह जो हो गया वह अन्तर के अनंत वैभव को पा गया। . _ नि:स्पृह मानव परम मौन हो जाता है। मौन का अर्थ न बोलना, इतना ही नहीं है। मौन का अर्थ है-इन्द्रियों के साथ आसक्ति भरे व्यवहार का त्याग ! जिस जीव को स्वरुचि भाव जग गया वह इन्द्रियों को उनके यथार्थ रूप में पहिचान लेता है और इस कारण वह उनके प्रति आसक्त नहीं होता। परम मौन हो जाता है। यही तथ्य मौनाष्टक व्यक्त करता है। मौन वही हो सकता है जिसने आत्मविद्या प्राप्त कर ली हो। इसी कारण मौनाष्टक के बाद विद्याष्टक कहा गया। विद्या का तात्पर्य शब्दों का संग्रह नहीं। बल्कि जो आत्मा के यथार्थ रूप का परिचय दे वही विद्या है। आत्म-विद्या को प्राप्त करते ही साधक का जड़ चेतन भेद रूप विवेक जग जाता है। विवेक का अर्थ है हेय और उपादेय का बोध होना। जिसे शरीर और आत्मा का भेद समझ में आ गया वह विवेकी हो जाता है। इसी कारण विद्याष्टक के बाद विवेकाष्टक का कथन है। कदाग्रह का त्याग करके जो व्यक्ति स्याद्वाद का सिद्धान्त स्वीकार करता है वह राग-द्वेष दोनों में संतुलित रहता है। उसी संतुलन को माध्यस्थ्य भाव कहा है। इसी भाव का चिंतन मध्यस्थाष्टक में किया गया जो आत्म-भावों में संतुलित हो गया वह सदा भयरहित हो जाता है। क्योंकि भय सदा संसार की आसक्ति के कारण ही होता है। आसक्ति मिटते ही साधक निर्भय हो जाता है। यह चिंतन निर्भयाष्टक में किया गया फिर वह आत्मा संसार की प्रशंसा या निंदा में नहीं डूबता। उसे प्रशंसा के प्रति किसी प्रकार का कोई राग नहीं होता। अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ इस तथ्य का विश्लेषण अनात्मशंसाष्टक में किया गया है। ___ जीव के अनादि काल के भ्रमण का मूल कारण हे तत्त्वदृष्टि का अभाव / इसके कारण वह वस्तु को उसके यथार्थ रूप में नहीं देख पाता। वह सदा राग या द्वेष की दृष्टि से वस्तु को मूल्य देता है और इसी कारण