Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ वंदनाधिकार मुनियों की वृत्ति सिंह के समान है तथा मुनियों के परिणाम ध्यान में स्थिर रहते हैं तब तक ध्यान छोडकर अन्य कार्य का विचार नहीं करते / जब ध्यान से परिणाम उतरते हैं तब शास्त्राभ्यास करते हैं अथवा औरों (शिष्य आदि) को (शास्त्राभ्यास) कराते हैं / जिनवाणी के अनुसार ही जो ग्रन्थ हों उनका अवलोकन करते (उपलक्षण से लिखते बनाते) हैं / यदि शास्त्राभ्यास करते-करते भी परिणाम (ध्यान में) लग जावें तो शास्त्राभ्यास छोडकर भी ध्यान में लग जाते हैं क्योंकि शास्त्राभ्यास से भी ध्यान का फल बहुत अधिक है / नीचे के छोटे कार्यों को छोडकर ऊंचे कार्य में लगना उचित ही है। फिर भी ध्यान में उपयोग की स्थिरता थोड़ी होती है तथा शास्त्राभ्यास में उपयोग की स्थिरता बहुत रहती है, अतः मुनि महाराज ध्यान भी धरते हैं और शास्त्र भी पढ़ते हैं तथा उपदेश भी देते हैं / स्वयं गुरु से पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं अथवा चर्चा करते हैं। मूल ग्रन्थ के अनुसार अपूर्व (नया) ग्रन्थ बनाते हैं। __मुनि का आहार विहार :- नगर से नगरान्तर (दूसरे नगर) को विहार (गमन) करते हैं, अथवा देश से देशान्तर को गमन करते हैं / भोजन के लिये नगर आदि में भी जाते हैं, वहां पडगाहे (शास्त्राक्त विधि पूर्वक ग्रहस्थ द्वारा अपने घर में प्रवेश करने की प्रार्थना किये) जाने पर उच्च क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण कुल में नवधा भक्ति सहित छियालीस दोषों, बत्तीस अन्तरायों को टाल कर खडे-खडे एक बार कर-पात्र (हाथ) ही में आहार लेते हैं / इत्यादि शुभ कार्यों में प्रवर्तन करते हैं / मुनि उत्सर्ग मार्ग को छोडकर परिणामों की निर्मलता के लिये अपवाद मार्ग को भी आदरते हैं तथा अपवाद मार्ग को छोडकर उत्सर्ग मार्ग को भी ग्रहण करते हैं / उत्सर्ग मार्ग तो कठिन होता है तथा अपवाद मार्ग सुगम होता है तो मुनियों को ऐसा हट नहीं होता कि हमें तो कठिन का ही आचरण आचरना (ग्रहण करना) है, अथवा सुगम आचरण को ही आचरना है /