Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
कट्टुत्तं किरिदं कट्टिदोडल्पतरबंधनक्कुं । स्वस्थानदोळव स्थितबंधमक्कुं । एनुमं कट्टदे बहु पिरिदनागलि किरिदनागलु कट्टिदोडवक्तव्य बंधमक्कुमी मूलप्रकृतिबंधस्थानंगळोळवक्तव्यबंधभेदमिल्लेदोर्ड अवतरणदो वेदनीयमं आरोहणदोळु षट्कम्र्ममनुपशांतकषायनुं सूक्ष्मसांपरायनुं कट्टुतलुमवतरिसुगुमा रोहणमं माळकुमप्पुदरिदं ।
अट्ठदयो सुमोति य मोहेण विणा हु संतखीणेसु ।
घादिदठाणच उक्करसुदओ केवलिदुगे णियमा ||४५४ ||
अष्टोदयः सूक्ष्म सांप रायपय्र्यंतं च मोहेन विना खलूपशांतक्षीणकषाययोर्घातीतराणां चतुष्कस्योदयः केवलिद्वये नियमात् ॥
१० गळो
सूक्ष्मसां पराय गुणस्थान पय्र्यंत मष्टमूलप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । उपशांतकषायक्षीणकषायरुमोहवज्जितसतमूलप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । मघातिचतुष्कोदयं सयोगायोग के वलिद्वयदोळक्कु नियर्मादिदं । संदृष्टि :
मि । सा | मि | अ उ ८ |८ ८ 1 ८
अ अ । सू
| दे | प्र अ | ८ | ८ | ८ ८ | ८ | ८
उक्षी | स | अ
७ ४ ४
घाणं दुमट्ठा उदीरगा रागिणो य मोहस्स । तदिआऊण पत्ता जोगंता होंति दोहंपि ।। ४५५ ||
घातीनां छद्मस्थाः उदीरकाः रागिणश्च मोहस्य । तृतीयायुषोः प्रमत्ता योग्यताः भवंति १५ द्वयोरपि ॥
6)
बंध: । बहुपं घ्नतोऽल्पतरः । अल्पं बहु वा बध्वानंतरसमये तावदेव बनतोऽवस्थितः । किमप्यवध्वा पुनर्वघ्नतोऽवक्तव्यः, नायं भेदो मूलप्रकृतिबंधस्थानेष्वस्ति ॥ ४५३ ॥
सूक्ष्मसांपरायपर्यंतमष्टमूलप्रकृतीनामुदयः, उपशांतक्षीणकषाययोर्मोहेन विना सप्तानामेवोदयः । सयोगायोगयोरघातिनामेव चतुर्णामुदयो नियमेन ॥४५४॥
२० अपनी देवायुमें छह महीना शेष रहनेपर ही आयुका बन्ध होता । अतः एकसे आठके बन्धरूप भुजकार नहीं होता ।
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पहले थोड़ी प्रकृतियों को बाँधकर पीछे बहुत प्रकृतियोंको बाँधनेका नाम भुजकार बन्ध है । पहले बहुत प्रकृतियोंको बाँध पीछे थोड़ीको बाँधनेका नाम अल्पतर है। पहले जितनी प्रकृति बाँधी हो उतनी ही पीछे अनन्तर समय में बाँधनेको अवस्थित बन्ध कहते हैं । और २५ कुछ भी न बाँधकर पीछे बाँधनेको अवक्तव्य बन्ध कहते हैं । यह अवक्तव्य बन्ध मूलक मोंमें सम्भव नहीं है, उत्तर प्रकृतियों में ही सम्भव है। यह इन चारों बन्धोंका स्वरूप है ||४५३ ||
सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त आठों मूल प्रकृतियोंका उदय रहता है । उपशान्तकषाय क्षीणकषाय में मोहके बिना सातका ही उदय रहता है । सयोगी और अयोगीमें चार अघाति कर्मोंका ही उदय नियमसे है ||४५४ ||
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