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सिद्धान्त ध्रव है, जीवन गतिशील। इस तरह देखा जाता है कि सिद्धान्त का आग्रह अपनी जगह छूटा रह गया है और इतिहास आगे बढ़ गया है । मत पर टिक गया वह-गति में मानो रुक गया है। इस प्रकार मतवादिता में बंधकर 'धर्म' सम्प्रदाय की सष्टि कर चलता है और साम्प्रदायिकताएँ फिर द्वन्द्व, घर्षण और ताप-उत्ताप पैदा करती हैं। यहीं से हिंसा फूटती है। नेता, व्यवस्थापक इसका दोष 'धर्म' को देने लगते हैं। सच पूछिए तो मतवादिता के पीछे 'अस्मिता' की हुंकार होती है । अपना मान-गुमान होता है और उसमें सांसारिक तृष्णा, आकांक्षा छिपी रहती है। राजकारण इन आकांक्षाओं को तीव्र उत्कट बनाता है। अर्थात् सम्प्रदायवाद पृथकवाद तथा अन्यान्य इतरवाद मूलतः अहंवाद के ही रूप होते हैं । इस अहम् का उपचार केवल धर्म के पास है । अन्यत्र कहीं नहीं। कारण धर्म चिन्मय है, निरन्तर है, ऊर्ध्वमान्, गतिमान् काल स्वयं उसका एक आयाम है। अर्थात् इतिहास यदि विकास पाता है तो 'धर्म' के आधार पर । जो बद्धि 'धर्म' को विकास के मार्ग में अवरोध मानती है वह अपने ही सम्मोहन में पड़ी है और मनोसृष्टि के क्रम को अपनी मुट्ठी में बंधा मान लेना चाहती है। ऐसा अहम्-दी विज्ञान आज मानव जाति को किस ध्वंश के शीर्ष पर ले आया है यह प्रकट है।
- यदि जल है, प्रवाह है, तो दो तट हुए बिना नहीं रह सकते।। तट भी दो हैं प्रवाह एक है यही जीवन की स्थिति है। हम हैं-इसका बोध हमें अपने भीतर से प्राप्त होता है। अनुभूति के इस स्रोत को हम अन्तरात्मा कहते हैं किन्तु बोध के लिए जो भी हमें इन्द्रियां प्राप्त हैं वे बाहर की ओर खुलती हैं । अर्थात् अन्तर्जगत् और बाह्यजगत् चेतना के तट की दृष्टि से ही दो कहे जा सकते हैं। किन्तु यदि चैतन्य प्रवाहित है तो एक साथ दोनों तटों को निरन्तर छूता और साधता हुआ ही गन्तव्य की ओर बढ़ता जाता है। उसमें आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक, सांसारिक इस प्रकार का एक उपक्रम अथवा अनुपक्रम देखा जा सकता है । नितान्त बाह्य तट को छता हुआ सांसारिक, तो आन्तरिक को व्यवहृत करने वाला आध्यात्मिक । जीवन की समग्रता में इन दोनों अथवा चारों में कोई स्तर अछता या अनभीगा नहीं रहता । प्रत्युत सच्चे धार्मिक पुरुष में उत्तरोत्तर भरपूरता पाता हुआ दिखाई देता है।
आज का ज्ञान-विज्ञान वस्तु जगत् को प्रधानता देता है और हो सकता है यह प्रतिक्रिया हो । कारण यह है कि पहले हम मनमच ही 'आत्म' की ओर अतिरेकपूर्वक झुक गए थे। समाज राष्ट्र आदि संज्ञाओं के प्रति अनवधानता आ गई थी। जीवन का सन्तलन विचलित हो गया था । आज वही विचलन दूसरी अति पर दीखता है । आत्मवाद को कुचलकर संसारवाद दर्पोद्धत हो उठा है।
प्रवृत्ति की अतिशयता है । सफलता अभीष्ट बन गई । राह में नीति-अनीति का विचार अनिष्ट है । नैतिकता मानो गति में अवरोध पैदा करती है। सत्ता-सम्पदा को पा सकेगा वही जो नीति-अनीति के वैचारिक परिग्रह से मुक्त हो । सफलता जैसे स्वयं में अपना बड़ा समर्थन है। आप शीर्ष पर पहुंच जाएं तो आपका किया धरा सब कुछ श्लाघ्य और स्तुत्य हो जाएगा। व्यवहार में आदर्श का या मूल्य का विचार किया तो बस आप गए। आज सभ्यता के जिस उत्कर्ष पर आदमी आ पहुंचा है वहां उसकी यह स्थिति बन गई है।
विचारशील जन चितित हैं। आदमी की कारगुजारी ने पर्यावरण को भयंकर रूप से प्रदूषित कर दिया है। उन्नति में ही गिरावट दीखने लगी है । शंका होने लगी है कि विज्ञान के सहारे कहीं मनुष्य भगवान् से हटकर शैतान की शरण में तो नहीं जा
रहा है ।
ऐसी भयावह स्थिति में मैं यह अशुभ नहीं अतीव शुभ मानता हूं कि इस ग्रन्थ के सम्पादकीय विद्वन्मण्डल ने बृहद् आकारप्रकार में धर्म के तत्त्वविवेचन के नाना आयामों को समाहित कर इस कोश की संरचना सम्पन्न की है जिसे एक नितान्त अपरिग्रही, अकिंचन दिगम्बर आचार्य के करारविन्द में अपित किया जायेगा। मैं इस अनुष्ठान के आयोजकों, विशेषकर ग्रन्थ के सम्पादकों, का साधुवाद करता हूँ।
006099 अमृतकला
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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