________________
४३
निश्चिन्त सुभीते होनेपर भी तथा अध्ययनकी दृष्टिसे बाल्य अवस्था अधिक उपयुक्त होनेपर भी जैन परम्पराने ऐसा एक भी विद्वान् साधु पैदा नहीं किया है जो ब्राह्मण परम्पराके विद्वान् के साथ बैठ सके । शुरूसे आजतक बाल - दीक्षा थोड़े बहुत परिमाणमें चालू रहनेपर भी उसका विद्या सम्बन्धी उद्देश्य शून्य - सा रहा है । विद्याके बारेमें जैन परम्पराने स्वावलम्बन पैदा नहीं किया, यही इस निर्बलताका सबूत है । जहाँ उच्च और गम्भीर विद्या अध्ययनका प्रसंग श्राया, वहीं जैन साधु ब्राह्मण विद्वानोंका मुखापेक्षी हुत्रा और अब भी है । जिस फिरके में जितनी बाल - दीणाएँ अधिक, उस फिरकेमें उतना ही विद्याका विस्तार व गांभीर्य अधिक होना चाहिए और परमुखा - पेक्षिता कम होनी चाहिए । पर स्थिति इसके विपरीत है । इस बातको न तो साधु ही जानते हैं और न गृहस्थ ही । वे अपने उपाश्रय और भक्तोंकी चहारदिवारीके बाहरके जगतको जानते ही नहीं । केवल सिद्धसेन, समन्तभद्र
कलंक, हरिभद्र, हेमचन्द्र या यशोविजय के नाम व साहित्यसे श्राजकी बालदीक्षा का बचाव करना, यह तो राम भरत के नाम और कामसे सूर्यवंशकी प्रतिष्ठाका बचाव करने जैसा है । जब बाल्यकाल से ही ब्राह्मण बटुकोंकी तरह बालजैन साधु-साध्वियों पढ़ते हैं और एकमात्र विद्याध्ययनका उद्देश्य रखते हैं तो क्या कारण है बाल - दीक्षाने विद्याकी कक्षाको जैन परम्परामें न तो उन्नत किया, न विस्तृत किया और न पहलेकी श्रुत परम्पराको ही पूरे ही तौरसे सम्भाले रखा ।
दीक्षाका दूसरा उद्देश्य तप व त्याग बतलाया जाता है । मेरी तरह आपमें से अनेकोंने जैन परम्पराके तपस्वी साधु-साध्वियों को देखा होगा । तीन, दो और एक मास तक उपवास करनेवाले साधुओं और साध्वियों को मैं जानता हूँ, उनके सहवास में रहा हूँ; भक्तिसे रहा हूँ । तप्त टीनकी चद्दरपर धूपमें लेटनेवाले तथा अति संतप्त बालुकापर नंगे बदन लेटनेवाले जैन तपस्वियों को भी मैंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया है, पर जब इतनी कठोर तपस्याका उनकी श्रात्मापराध्यात्मिक परिणाम क्या-क्या हुआ, इसपर मध्यस्थ भाव से सोचने लगा तो मैं एक ही नतीजेपर आया हूँ कि जैन परम्परा में बाह्य तपका अभ्यास ही खूब हुआ है । इस विषय में भगवान् महावीरके दीर्घतपस्वी विशेषणकी प्रतिष्ठा बना रखी है, पर जैन परम्परा भगवान् महावीरकी तपस्याका मर्म अपना
निष्फल रही है । जिस एकांगी बाह्य तपको तापस तप की कोटि में भगवान् ने रखा था, उसी का जैन परम्पराने विकास किया है, तपके श्राभ्यन्तर स्वरूप में जो स्वाध्याय तथा ध्यानका महत्त्वपूर्ण स्थान है उसका बाल दीक्षा या प्रौढ़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org