________________
* चौबीस तीयकर पुराण *
दत्तचित्त रहने लगीं। वे देवियां मरु देवीकी तरह तरहकी सेवा करने लगींकोई शरीरमें तैलका मर्दन करती थी, कोई उबटन लगाती थी, कोई नहलाती थी, कोई चन्दन कपूर कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्योंका लेप लगाती थीं, कोई बालोंको सम्भालकर उन्हें सुगन्धित फूलोंसे सजाती थी, कोई उत्तम वस्त्र पहिनाती थी, कोई कंकण केयूर मंजीर आदि अनेक तरहके आभूपण पहिनाती थी, कोई अमृतके समान अत्यन्त मधुर भोजन कराती थी, कोई शिरपर छत्र लगाती थी, कोई उत्तम ताम्बूलके वीड़े समर्पण करती थी कोई रत्नोंके चूर्णसे चौंक पूरती थी; कोई तलवार लेकर पहरा देती थी कोई आंगन वुहारती थी
और कोई मनोहर कविताओं कहानियों, पहेलियों और समस्याओंके द्वारा उनका चित्त अनुरंजित करती थी। इस तरह देवियोंके साथ नृत्य गीत आदि विनोदोंके द्वारा मरू देवीका समय सुखसे बीतता था। उस समय विचित्र बात यह थी कि गर्भके दिन बीतते जाते थे पर उनके शरीरमें गर्भके कुछ भी चिन्ह प्रकट नहीं हुए थे। न पेट बढ़ा था न मुखकी कान्ति फीकी पड़ी थी न आंखों और स्तनोंमें भी कुछ परिवर्तन हुआ था।
जब धीरे धीरे गर्भका समय पूरा हो गया तव चैत्र कृष्ण नवमीके दिन उत्तम लग्नमें प्रातःकालके समय मरु देवोने पुत्र रत्न प्रसव किया। उस समय वह पुत्र सूर्यके समान मालूम होता था, क्योंकि जिस प्रकार सूर्य उदयाचलके द्वारा प्राची दिशामें प्रकट होता है उसी प्रकार वह भी महाराज नाभिराजके द्वारा महारानी मरुदेवीमें प्रकट हुआ था। जिस तरह सूर्य किरणोंसे प्रकाशमान होता है तथा अन्धकार नष्ट करता है उसी तरह वह भी मति, श्रुत अवधि ज्ञान रूपी किरणोंसे चमक रहा था और अज्ञान तिमिरको नष्ट करता था । वालक रूपी बाल सूर्यको देखकर देवाङ्गनाओंके नयन-कमल विकसित हो गये थे और उनसे हर्षाश्र रूपी मकरन्द झरने लगा था। बालककी अनुपम प्रभासे समस्त प्रकृति गृह अन्धकार रहित हो गया था इसलिये देवियोंने जो दीपक जलाये थे वे सिर्फ मंगलके लिये ही थे। उस समय तीनों लोकोंमें क्षोभ मच गया था। क्षण एकके लिये नारकी भी सुखी हो गये थे। दिशाएं निर्मल हो गयी थों, आकाश निमेघ हो गया था, नदी तालाब आदिका पानी