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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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बढ़े। इस तरह कुछ दिनोंतक निरन्तर चलने पर गुहामार्ग समाप्त हो गया और चक्रवर्ती तटके वनमें पहुंच गये। वहां सिन्धु नदीके शीतल जल कणोंले मिश्रित पवनके सुखद सर्शसे सबको बहुत आनन्द हुआ। तट बनकी मनोहरतासे प्रमुदित होकर चक्रवर्तीन कुछ दिनोंतक वहींवर विश्राम किया। भरत को अ.ज्ञा पाकर सेनापति जयकुमारने पश्चिमकी तरह पूर्व खण्डोंमें भी घुनघूनकर उनका शासन स्थापित किया । जब जयकुमार लौटकर वापिस आया तव चक्रवर्तीने उसका खूब सत्कार किया ।
अब चक्रवर्ती समस्त सेना लेकर मध्यम खण्डको जीतने के लिये चले। वहां इनकी सेनाका तुमुल रव सुनकर दो म्लेच्छ युद्ध करनेके लिये भरतके सामने आये । इन म्लेच्छ राजाओंको उनके बुद्धिमान मन्त्रियोंने पहले तो युद्ध करने से बहुत रोका पर अलमें जर उनका विशेष आग्रह देखा तब उन्हें युद्ध करने के अनेक उप य बताये । मन्त्रिों के कहे अनुसार म्लेच्छ राजाओंने मन्त्र वलसे नाग देवों का अल न किया । नाग देव मेघांका रूा रखकर समस्त आकाश मे फैल गये और लगे चक्रवर्तीको सेन पर मूमलाधार पानी पासाने । पानो बासते सनय ऐसा मालू न होना था मानों आकाशके फट जाने से वर्ग गङ्गाका प्रचल प्रघ ह हो वेगसे नाचे गिर रहा हो । जय चक्रवर्गाको सेना उस प्रचण्ड वर्षासे आकुल व्याकुल होन लगी तब उन्हों। ऊर छ रन और नोचे चर्म रत्न फगकर उसके योचने सस्त सेनाके साथ विश्राम किग । लगातार सत दिन तक सू नलाधार वषां होनो रही जिससे ऐता म लू न होने लगा था कि भरतकी सेना समुहमें तैर रही है। मौका देखकर भरतने उपद्रव दूर करनेके लिये गणबद्ध देवोंको आज्ञा दी। गणवद्ध देवोंने अपनी अप्रतिम हुंफारसे समस्त दिश ए गुजा दो उसी समय बहादुर जयकुमारने दिव्य धनुष लेकर वाणोंसे आकाशको भर दिया और हिनादसे सब न गोंके दिल दहला दिये। वे डर कर भाग गये जिससे आकाश निर्मल हो गया। उसमें पहले की भांति सूर्य चमकने लगा। भरतने जयकुमारकी वोरतासे प्रसन्न होकर उसका मेघेश्वर नाम रखा और उपद्रवको दुर हुआ समझकर छत्र रत्नका संकोच किया। जब नाग देव भाग गये तय म्लेच्छ राजा बहुत दुखी हुर क्योंकि इनके पास चक्र