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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
इस प्रकार पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें विजय प्राप्त कर चुकनेके वाद भरतजो उत्तर दिशाकी ओर च । अयंता उनको सेना बहुत अधिक बढ़ गई थी क्योंकि रास्ते में मिलनेवाले अनेक राजा मित्र होकर अपनी २ सेना लेकर उन्हींके साथ मिलते जाते थे। जब वह विशाल सेना चलतो थी तब उसके भारसे पृथ्वी, पर्वत और पादप आदि सभी वस्तुयें कांप उठती थीं। उसकी जयध्वनि सुनते ही शत्रु राजाओंके दिल दहल जाते थे। चलते चलते चकूवर्ती विजया पर्वतके पास पहुचे वहां उन्होंने सुवसे समस्त सेनाको ठहराया
और स्वयं आवश्यक कार्य कर चुकनेके बाद मन्त्रोंकी आराधनामें लग गये। कुछ समय बाद वहांपर एक देव भरतसे मिलनेके लिए आया भरतने उसे सत्कार पूर्वक आसन दिया। भरत प्रदत्त आसनार बैठकर देवने निम्न शब्दोंमें अपना परिचय दिया -प्रभो' में बिजया नामका, देव हूँ, में जातिका व्यन्नर हूँ, आपको आयाहुभा देख कर सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं हर एक तरह से आपका सेवक हूँ। देव ! देखये, आपका निर्मल-धवल यश समस्त आकाशमें केसा छा रहा है, इत्यादि मनोहर स्तुति कर उसने चक्रव
का तीर्थोदकसे अभिषेक किया और अनेक वस्त्राभूपण, रत्नसिङ्गार, सफेद छत्र, दो चमर तथा सिंहासन प्रदान किया। इसके बाद देव आजा प्रकट कर अग्नी जगहपर वारिप्त चला गया। 'यर विजयादेव विजया गिरिको दक्षिण श्रेणीमें रहता है इसलिये इसके वशीभूत हो चुकनेर भो उत्तर श्रेणीके देवको वशमें करना बाकी है और जब समस्त विजयाध पर हमारा अधिकार हो चुकेगा तमो द क्षग भारतकी दिग्विजय पूर्ण हुई कहलाव' ऐप्ता सोचकर भरत महाराजने जल, सुगन्धि आदिसे चक्ररत्नकी पूजा को तथा उपवास रखकर मन्त्रों को आराधना की। फिर ममस्त सेनाके माथ प्रस्थान कर विजया गिरे की पश्चिम गुफ के पास आये । चक्रवर्तीने पासके वनों में सेना ठहरा दी। वहां पर भी अनेक राजा तरह तरह के उपहार लेकर उनसे मिलने के लिये आये। उत्तर विजयाका स्वामी कृतमाल नामक देव भी भरतके स्वागतके लिये आया। भानने उसके प्रति प्रेम प्रदर्शन किया कृतमालने चौदह आभूषण देकर भरतको खूब प्रशंसा की और गुफामें प्रवेश करनेके उपाय बतलाये । चकू.
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