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राज्य देकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्रके पास दीक्षित हो गया। उनके समीपमें रहकर उसने कठिन कठिन तपस्याओंसे आत्म शुद्धि की और निरन्तर शास्त्रोंका अध्ययन करते करते ग्यारह अङ्ग तकका ज्ञान प्राप्त कर लिया। मुनिराज विमल वाहन यही सोचा करते थे कि इन दुखी प्राणियोंका संसार सागरसे कैसे उद्धार हो सकेगा ? यदि मैं इनके हित साधनमें कृतकार्य हो सका तो अपनेको धन्य समझूगा । इसी समय उन्होंने दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृतिका बन्ध हो गया अन्तमें समाधि पूर्वक शरीर त्यागकर पहले ग्रैवेयकके सुदर्शन नामक विमानमें अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी आयु तेईस सागर प्रमाण थी, शरीरकी ऊंचाई साठ अंगुल थी, और रंग धवल था। वे वहां तेईस पक्षमें श्वांस लेते थे और तेईस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते थे। वे स्त्री संसर्गसे सदा रहित थे। उनके जन्मसे ही अवधि ज्ञान था, और शरीरमें अनेक तरहकी ऋद्धियां थीं। इस तरह वे वहां आनन्दसे समय बिताने लगे। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान शंभवनाथ होंगे।
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वर्तमान परिचय जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्रमें एक श्रावस्ती नामकी नगरी है। उस नगरीकी रचना बहुत ही मनोहर थी, वहां गगनचुम्बी भगवान हुए थे, जिनपर अनेक रङ्गोंकी पताकाएं फहरा रही थीं। जगह जगहपर अनेक सुन्दर वापिकाएं थीं। उन वापिकाओंके तटोंपर मराल बाल क्रीडा किया करते थे । उसके चारों ओर अगाध जलसे भरी हुई परिखा थी और उसके बाद ऊंची शिखरोंसे मेघोंको छूने वाला प्राकार कोट था। जिस समयकी यह कथा है उस समय वहाँ दृढ़राज्य नामके राजा राज्य करते थे। वे अत्यन्त प्रतापी, धर्मात्मा, सौम्य और साधु स्वभाव वाले व्यक्ति थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश और काश्यप गोत्रमें हुआ था। उनकी महाराणीका नाम सुषेणा था। उस समय वहां महारानी सुषेणाके समान सुन्दरी स्त्री दूसरी नहीं थी। वह अपने रूपसे देवाङ्गनाओंको
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