Book Title: Chobisi Puran
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Dulichand Parivar

View full book text
Previous | Next

Page 343
________________ * चौबीस तीर्थकर पुराण * १७३ - - - ऋतुओंने धन धारामें शोभा प्रकट करदी है और सिंह व्याघ्र हाथी जीव परस्परका विरोध छोड़कर प्रेमसे ही हिल मिल रहे हैं। बनमें मुनिराजका आगमन सुनकर राजाको इतना हर्ष हुआ कि वह शरीरमें नहीं समा सका और आंसुओंके छलसे बाहिर निकल पड़ा। उसने उसी समय सिंहासनसे उठकर मुनिराजके लिये परोक्ष प्रणाम किया तथा यनमाली को उचित पारितोषिक देकर विदा किया। फिर समस्त परिवारके साथ मुनि बन्दनाके लिये यनमें गया। वहां उसने भक्ति पूर्वक साष्टांग नमस्कार कर पाचेतस महर्षिसे धर्मका स्वरूप सुना, जीव अजीव आदि पदार्थों का व्याख्यान सुना और फिर उनसे सुब्रताके पुत्र नहीं होनेका कारण पूछा। मुनिराज प्राचे. तसने अपने अवधिज्ञानसे सष हाल जानकर कहा-'राजन् ! पुत्रके अभावमें इस तरह दुःखी मत होओ। आपकी इस सुब्रता महारानीके गर्भसे पन्द्रह माहके याद जगद्वन्ध परमेश्वर धर्मनाथका जन्म होगा जो अपना तुम्हारा नहीं, सारे संसारका कल्याण करेगा।' मुनिराजके वचनों से प्रसन्न होकर राजाने फिर पूछा 'महाराज ! उस जीवने किस भवमें, किस तरह और कैसा पुण्य किया था ? जिससे वह इतने विशाल तीर्थंकर पदको प्राप्त होने वाला है ? मैं उसके पूर्वभव सुनना चाहता हूं, तय प्राचेतस महर्षिने अपने अवधिज्ञान रूपी नेत्रसे देख कर उसके पहलेके दो भवोंका वर्णन किया जो पहले लिखे जा चुके हैं। राजा मुनिराजको नमस्कार कर परिवार सहित अपने घर लौट आया। उसी दिनसे राजभवन में रत्नोंकी वर्षा होनी शुरू हो गई और इन्द्रकी आज्ञा पाकर अनेक दिक्कुमारियां रानी सुनताकी सेवाके लिये आ गई जिससे राजाको मुनिराजके वचनों पर दृढ़ विश्वास हो गया । देव कुमारियोंने अन्तःपुरमें जाकर रानी सुव्रता की इस तरह सेवाकी कि उसका छह मासका समय क्षण एककी तरह निकल गया।वैशाख शुक्ल १३ के दिन रेवती नक्षत्र में रानीने १६ स्वप्न देखे उसी समय उक्त अहमिन्द्रने सर्वार्थ सिद्धिके सुरम्य विमानसे सम्बन्ध तोड़कर उसके गर्भ में प्रवेश किया । सवेरा होते ही रानीने पतिदेव महासेन महाराजसे स्वप्नोंका फल पूछा । उन्होंने भी एक एक कर स्वप्नोंका फल बतलाते हुये

Loading...

Page Navigation
1 ... 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435