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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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पिताकी बात सुनकर स्वयंप्रभ महाराजने हमारे पूर्व और आगेके कुछ भव बतलाये। उसी प्रकरणमें हम दोनोंके पूर्वभवके बड़े भाई चिन्तागतिका नाम आया था। उसे सुनकर पिताजीने भगवानसे पुनः पूछा कि चिन्तागति इस समय कहां उत्पन्न हुआ है ? । तब उन्होंने कहा कि इस समय वह सिंहपुर नगरमें अपराजित नामका राजा हुआ है। इस प्रकार भगवान स्वयंप्रभके वचन सुनकर हम दोनों भाई वहां पर दीक्षित हो गये और फिर पूर्व जन्मके स्नेहसे तुम्हें देखने के लिये आये हैं। राजन् ! अब तक आपने पूर्व पुण्यके उदयसे अनेक भोग भोगे हैं। एक अज्ञकी तरह आपने अपनेको अजर अमर समझ कर आत्म हितकी ओर कुछ भी प्रवृत्ति नहीं की है। इसलिये अब आप विषय बासनाओंसे विमुक्त होकर कुछ आत्म कल्याणकी ओर प्रवृत्ति कीजिये । यह सुनकर राजा अपराजितने उन दोनों मुनियोंकी खूब स्तुति की और उनका आभार माना । मुनिराज अपना कार्य पूरा कर आकाश मार्गसे बिहार कर गये।
राजा अपराजितने भी अपने प्रीतिङ्कर नामके पुत्रको राज्य दिया, आष्टा ह्निक पूजा की और अब शेष दिनों में प्रायोपगमन सन्यास धारण कर अच्युतेन्द्र हुआ। वहां पर वह बाईस सागर तक नर दुर्लभ सुख भोगता रहा। आयु पूर्ण होने पर जम्बू द्वीपके भारत क्षेत्रमें कुरुजङ्गल देशके हस्तिनापुर नगरमें रजा श्रीचन्द्र और रानी श्रीमतीके सुप्रतिष्ठित नामका पुत्र हुआ। राजा श्रीचन्द्रने उसका सुनन्दा नामक कन्याके साथ विवाह कर दिया जिससे वह तरह तरहके भोग बिलासोंसे अपने यौवनको सफल करने लगा।
किसी एक दिन महाराज श्रीचन्द्रने प्रतिष्ठित पुत्रके लिये राज्य देकर सुमंदर नामके मुनिराजके पास दीक्षा ले ली। इधर सुप्रतिष्ठित भी काम, क्रोध, मद मात्सर्य लोभ मोह आदि अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग आदि शत्रुओंको जीतकर न्याय पूर्वक राज्य करने लगा। उसने किसी समय यशोधर नामक मुनिराजको आहार दिया था जिससे उसके घर पर पंचाश्चर्य प्रकट हुये थे। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ अपने समस्त परिवारके साथ मकानकी छतपर बैठकर चन्द्रमाकी सुन्दर सुषमा देख रहा था। उसी समय आकाशसे एक भयङ्कर उल्कापात हुआ जिससे उसका मन विषयोंसे सहसा विरक्त हो गया। वह
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