Book Title: Chobisi Puran
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Dulichand Parivar

View full book text
Previous | Next

Page 399
________________ * चौबीस तीथक्कर पुराण २२६ रास्तेमें जहांसे वरात जानेको थी एक बाड़ लगवा दी और उसमें अनेक शिकारियोंसे छोटे-बड़े पशु-पक्षी पकड़वाकर बन्द करवा दिये। तथा वहां रक्षक मनुष्योंसे कह दिया कि जब तुमसे नेमिनाथ इन पशुओंके बन्द करनेका कारण पूछे तब कह देना यह जीव आपके विवाहमें क्षत्रिय राजाओंको मांस खिलानेके लिये बन्द किये गये हैं। कृष्णजीने अपना यह षड़यंत्र बहुत ही गुप्त रक्खाथा । जब श्रावण शुक्ला षष्टीका दिन आया तब समस्त यादव और उनके सम्बन्धी इकठे होकर झूनागढ़के लिये रमाना हुए। सबसे आगे भगवान् नेमिनाथ अनेक रत्नमयी आभूषण पहिने हुये रथपर सवार हो चल रहे थे। जब उनका रथ उन पशुओंके घेरेके पास पहुँचा और उनकी करुण ध्वनि नेमिनाथके कानोंमें पड़ी तब उन्होंने पशुओंके रक्षकोंसे पूछा कि ये पशु किस लिये इकठे किये गये हैं तब पशु रक्षक बोले कि आपके विवाहमें मारनेके लिये-क्षत्रिय राजाओं को मांस खिलानेके लिये महाराज कृष्णने इकट्ठ करवाये हैं । रक्षकोंके पचन सुनकर नेमिनाथने आचम्भेमें आकर कहा कि श्रीकृष्णने ? और मेरे विवाहमें मारनेके लिये ? तब रक्षकों ने ऊंचे स्वरसे कहा हाँ महाराज ! यह सुनकर वे अपने मनमें सोचने लगे कि 'जो निरीह पशु जंगलोंमें रह कर तृणके सिवाय कुछ भी नहीं खाते, किसीका कुछ भी अपराध नहीं करते। हाय ! स्वार्थी मनुष्य उन्हें भी नहीं छोड़ते।' नेमिनाथ अवधिग्यानके द्वारा कृष्णका कपट जान गये और वहीं उनको लक्ष्यकर कहने लगे। हा कृष्ण ! इतना अविश्वास ? मैंने कभी तुम्हें अनादर और अविश्वासकी दृष्टिसे नहीं देखा। जिस राज्यपर कुल क्रमसे मेरा अधिकार था मैंने उसे सहर्ष आपके हाथों में सौंप दिया। फिर भी आपको सन्तोष नहीं हुआ। हमेशा आपके हृदयमें यही शंका बनी रही कि कहीं नेमिनाथ पैतृक राज्यपर अपना कब्जा न कर लें। छि: यहतो हद हो गई अविश्वासकी । इस जीर्ण तृणके समान तुच्छ राज्यके लिये इन पशुओंको दुःख देनेकी क्या आवश्यक्ता थी ? लो मैं हमेशाके लिये आपका रास्ता निष्कण्टक किये देता हूँ'......उसी समय उन्होंने विषयों की भंगुरताका विचार कर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। लोकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा लेनेके विचारोंका समर्थन किया। -

Loading...

Page Navigation
1 ... 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435