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* चांसीस तीर्थकर पुराण*
वस, क्या था ? घरात यीचमें ही भंग हो गई। समुद्रविजय, वसुदेव, बलराम, कृष्णचन्द्र आदि कोई भी उन्हें अपने सुदृढ़ निश्चयसे विचलित नहीं कर सके। वहींपर देवोंने आकर उनका दीक्षाभिषेक किया । और एक महा मनोहर 'देवकुरु' नामकी पालकी धनाई। भगवान् नेमिनाथ पालकीपर सवार होकर रेवतक गिरनार पर्वतपर पहुंचे और वहांपर सहस्राम घनमें हजार राजाओंके साथ उसी दिन-श्रावण शुक्ला पष्टीके दिन चित्रा नक्षत्र में शामके समय दीक्षित हो गये । उन्हें दीक्षा लेते ही मनः पर्यय ज्ञान प्रकट हो गया था। दीक्षा लेते समय भगवान नेमिनाथकी आयु तीन सौ वर्षकी थी।
इधर जव राजाउग्रसेनके घर नेमिनाथकी दीक्षाके समाचार पहुंचे तब वे बहुत ही दुःखी हुए। उस समय कुमारी राजमतीकी जो अवस्था हुई थी उसका इस तुच्छ लेखनीके द्वारा वर्णन नहीं किया जा सक्ता। माता पिताके बहुत समझानेपर भी उसने फिर किसी दूसरे वरसे शादी नहीं की। वह शोकसे व्याकुल होकर गिरिनारपर मुनिराज नेमिनाथके पास पहुंची और अनेक रस भरे वचनोंसे उनका चित्त विचलित करनेका उद्यम करने लगी। परन्तु जैसे प्रलयकी पवनसे मेरु पर्वत विचलित नहीं होता वैसे ही राजमतीके वचनोंसे नेमिनाथका मन विचलित नहीं हुआ। अन्तमें वह उनके वैराग्यमय उपदेशसे आर्यिका हो गई और कठिन तपस्याओंसे शरीरको सुखाने लगी।
भगवान् नेमिनाथने दीक्षा लेनेके तीन दिन बाद आहार लेनेके लिये। । द्वारिका नगरीमें प्रवेश किया। यहां उन्हें वरदत्त महीपतिने भक्ति पूर्वक आहार
दिया। पात्रदानसे प्रभावित होकर देवोंने वरदत्तके घरपर पञ्चाश्चर्य प्रकट किये। इस तरह तपश्चरण करते हुए जब छमस्थ अवस्थाके छप्पन ५६ दिन 'निकल गये तब उसी रेवतक (गिरिनार ) पर्वतपर वंश वृक्षके नीचे तीन दिन ॥ के उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर विराजमान हुये। वहींपर उन्हें आसोज - 'वाके दिन सवेरेके समय चित्रा नक्षत्र में केवलज्ञानकीजन्दादि देवोंने आकर उनके ज्ञान माल्याणकका उत्सव किया। धनपति कुबेरने इन्द्रकी आज्ञासे समवसरणकी रचना की। उसके मध्यमें स्थिर होकर उन्होंने अपना छप्पन दिनका मौन भङ्ग किया। दिव्यध्वनिके द्वारा षद्रव्य, नवपदार्थ
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