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* चौबीस तीर्थकर पुराण
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का रूप धारण कर शरद् ऋतु आती है । वह प्रति दिन सबेरे के समय बाल दिनेश की सुनहली किरणों से लोगोंके अन्तस्तल को अनुरक्षित बना देती है। रजनी में चन्द्रमा की रजतमयी शीतल किरणों से अमृत वर्षाती है । पर जब उसमें भी लोगों का मन नहीं लगता तब हेमन्त, शिशिर, और वसन्त वगैरह आ-आकर लोगोंको आनन्दित करने की चेष्टाएं करती हैं। रातके बाद दिन और दिन के बाद रात का आगमन भी लोगों के सुभीते के लिए है। दुष्टों का दमन करने के लिये महात्माओं की उत्पति अनादि से सिद्ध है। इसी लिये भगवान पार्श्वनाथ के बाद जब भारी आतङ्क फैल गया था। तब किसी महात्मा की आवश्यकता थी। बस, उसी आवश्यकताको पूर्ण करनेके लिये हमारे कथा नायक भगवान महावीरने भारत बसुधा पर अवतार लिया था
जम्बूद्वीप-भरत क्षेत्रके मगध (बिहार) देशमें एक कुण्डनपुर नामक नगर था । जो उस समय वाणिज्य व्यवसायके द्वारा खूब तरक्की पर था। उसमें अच्छे अच्छे सेठ लोग रहा करते थे। कुण्डलपुरका शासन सूत्र महाराज सिद्धार्थ के हाथ में था । सिद्धार्थ शुर वीर होनेके साथ साथ बहुत ही गम्भीर प्रकृतिके पुरुष थे। लोग उनकी दयालुता देख कर कहते थे कि ये एक चलते फिरते दया के समुद्र हैं। उनकी मुख्य स्त्रीका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला) था। यह त्रिशला सिन्धु देश की वैशाली पुरीके राजा चेटककी पुत्री थी । बड़ी ही रुपवती और बुद्धिमती थी, वह हमेशा परोपकारमें ही अपना समय बिताती थी। रानी होने पर भी उसे अभिमान तो छू भी नहीं गया था । वह सची पतिव्रता थी। सेवासे महाराज सिद्धार्थको हमेशा सन्तुष्ट रखती थी। वह घरके नौकर चाकरों पर प्रेमका व्यवहार करती थी। और विघ्न-व्याधि उपस्थित होने पर उनकी हमेशा हिफ़ाजत भी रखती थी।
राजा सिद्धार्थ नाथवंश के शिरोमणि थे वे भी अपनेको त्रिशलाकी सङ्गति से पवित्र मानते थे राजा चेटकके त्रिशलाके सिवाय मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चन्दना ये छह पुत्रियां और थीं। मृगावतीका विवाह वत्सदेशकी कौशाम्बीनगरीके चन्द्रवंशीय राजा शतानीकके साथ हुआ था। सुप्रभा, दशर्ण देश के हेरकच्छ नगरके स्वामी सुर्यवंशी राजा