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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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भृत्य-दास घन जाओ, धर्ममें लीन रहो और हे धर्म ! हमेशा मेरी रक्षा करो .."इस तरह चिन्तवन करो।
मुनिराजके घचन सुनकर उसके हृदयमें वैराग्य रस समा गया। जिससे उसने कुछ समय बाद ही जिन दीक्षा लेकर सष परिग्रहोंका परित्याग कर दिया । अन्तमें वह सन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर सातवें कल्प-स्वर्गमें देव हुआ। लगातार तेरह सागरतक स्वर्गके सुख भोगकर वह वहांसे च्युत हुआ
और जम्बू द्वीप-भरतक्षेत्राके कीगण देशमें साकेत नगरके स्वामी राजा बज्र सेनकी रानी शीलवतीके हरिपेण नामका पुत्र हुआ । हरिपेणने अपने पाहुपलसे विशाल राज्य लक्ष्मीका उपभोग किया था और अन्त समयमें उस विशाल राज्यको जीर्ण तृणके समान छोड़कर श्रुतसागर मुनिराजके पास जिन दीक्षा ले ली तथा उग्र तपस्याएं की। उनके प्रभावसे वह महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ। वहां उसकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी। आयुके अन्त में स्वर्ग वसुन्धरासे सम्बन्ध तोड़कर वह धातकी खण्डके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेह क्षेत्र-पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें वहांके राजा सुमित्र और उनकी सुव्रता रानीसे प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। सुमित्र चक्रवर्ती था-उसने अपने पुरुषार्थ से छह वण्डोंको वशमें कर लिया था। किमी समय उसने क्षेमङ्कर जिनेन्द्रक मुखसे संसारका स्वरूप सुना और विषय वासनाओंसे विरक्त होकर जिन दीक्षा धारण कर ली । अन्तमें समाधि पूर्वक मरकर बारहवें सहस्रार स्वर्गमें सूर्यप्रभ देव हुआ। वहां वह अठारह सागरतक यथेष्ठ सुख भोगता रहा । फिर आयुके अन्तमें वहांसे च्युत होकर जम्बू द्वीपके क्षत्रपुर नगरमें राजा नन्दवर्द्धनकी वीरवतीसे नन्द नामका पुत्र हुआ। वह बचपनसे ही धर्मात्मा
और न्याय प्रिय था। कुछ समयतक राज्य भोगनेके बाद उसने किन्हीं मोष्टि. ल नामक मुनिराजके पास जिन दीक्षा ले लो। मुनिराज नन्दने गुरु चरणों सेवा कर ग्यारह अङ्कों का ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थङ्कर नामक महा पुण्य प्रकृति का बन्ध किया। फिर आयुके अन्त में आराधना पूर्वक शरीर त्याग कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुआ । वहां पर उसकी वाइस सागर प्रमा
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