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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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जानेपर पार्श्वनाथ स्वामी हुए थे। इनकी सौ वर्षकी आयु भी इसीमें शामिल है । इनके शरीरकी ऊंचाई नौ हाथकी थी और रंग हरा था। इनकी उत्पत्ति उग्रवंशमें हुई थी । भगवान् पार्श्वनाथने धीरे धीरे बाल्य अवस्था व्यतीत कर कुमार अवस्थामें प्रवेश किया और फिर कुमार अवस्थाको पाकर यौवन अवस्था के पास पहुंचे।
सोलह वर्षके पार्श्वनाथ किसी एक दिन अपने कुछ इष्ट मित्रोंके साथ वन में क्रीड़ा करनेके लिये गये हुए थे। वहांसे लौटकर जब वे घर आ रहे थे तब उन्हें मार्ग किनारेपर पंचाग्नि तपता हुआ एक साधु मिला । वह साधु ब्रह्मा देवीका पिता अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथका मातामह नाना था। अपनी स्त्रीके विरहसे दुःखी होकर वहां पचाग्नि तपने लगा था । उसका नाम महीथाल था। कमठका जीव सिंह आनन्द मुनिराजकी हत्या करनेसे मरकर नरकमें गया था वहांसे निकलकर अनेक कुयोनियों में घूमता हुआ वही यह महीपाल तापस हुआ था । भगवान् पाश्वनाथ और उनका मित्र सुभौम कुमार बिना नमस्कार किये ही उस तापसके सामने खड़े हो गये । तापसको इस अनादरसे बहुत बुरा मालूम हुआ। वह सोचने लगा--'मुझे अच्छे अच्छे राजा महाराजा तो नमस्कार करते हैं पर ये आज कलके छोकड़े कितने अभिमानी हैं। खैर !... यह सोचकर उपने वुझनी हुई अग्निको प्रदीप्त करने के लिये कुल्हाड़ीसे मोटी लकड़ी काटनी चाही । भगवान् पाश्वनाथने अवधि ज्ञानसे जानकर कहा कि 'चायाजी ! आप इस लकड़ीको नहीं काटिये इसके भीतर दो प्राणी बैठे हुए हैं जो कुल्हाड़ीके प्रहारसे मर जावेंगे। इसी बीचमें इनके मित्र सुभौम कुमारने उसके बालतप-अज्ञानतपकी खूब नि दा की और पंचाग्नि तपनेसे हांनियां बतलाई। सुभौमके बचन सुनकर तापप्तने झल्लाते हुये दोनोंके प्रति बहुत कुछ रोष प्रकट किया और कुल्हाड़ी मारकर लकड़ीके दो टूक कर दिये । कुल्हाड़ी. के प्रहारसे लकड़ी में रहने वाले सर्प और सर्पिणीके भी दो दो टुकड़े हो गये। उनके भग्न टुकड़े व्याधिसे तड़फड़ा रहे थे। पार्श्वनाथ स्वामीने कुछ उपाय न देखकर उन मर्प सर्पिणोको शान्त होनेका उपदेश दिया और पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया। उनके उपदेशसे शान्त चित्त होकर दोनोंने नमस्कार मन्त्रका