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* चौबीस तीर्थक्कर पुराण *
विजय होगी या नहीं। तब उन्होंने अवधिज्ञानसे सोचकर हंस दिया। कृष्णचन्द्र भी अपनी सफलताका निश्चय कर हंसी खुशीसे युद्धके लिये आगे बढ़े । युद्धका समाचार पाते ही हस्तिनापुरसे राजा पाण्डके पुत्र युधिष्ठिर वगैरह भी रणक्षेत्रमें शामिल हो गये। कुरु क्षेत्रके मैदानमें दोनों ओरकी सेना
ओंमें घमासान युद्ध हुआ। अनेक सैनिक तथा हाथी घोड़े वगैरह मारे गये। जब लगातार कई दिनोंके युद्धसे किसी भी पक्षकी निश्चित विजय नहीं हुई तब एक दिन कृष्णचन्द्र और जरासंध इन दोनों बीरों में लड़ाई हुई । जरासंध जिस शस्त्रका प्रयोग करता था कृष्णचन्द्र उसे बीचमें ही काट देते थे। अन्तमें जरासंधने क्रुद्ध हो घुमाकर चक्र चलाया। पर वह प्रदक्षिणा देकर कृष्णके हाथमें आगया । फिर कृष्णने उसी चक्रसे जरासंधका संहार किया। ठीक कहा है कि, "भाग्यं फलति सर्वत्र'-सब जगह भाग्य ही फलता है। विजयी श्रीकृष्णचन्द्रने चक्ररत्नको आगे कर बड़े भाई बलभद्र और असंख्य सेनाके साथ भरत क्षेत्रके तीन खण्डोंको जीतकर द्वारिका नगरीमें प्रवेश किया । उस समय उनके स्वागतके लिये हजारों राजा एकत्रित हुये थे। जादवोंकी इस शानदार विजयसे उनका प्रभाव और प्रताप सब ओर फैल गया था। सभी राजा उनका लोहा मानने लगे थे। समुद्रविजय आदिने प्रतापी कृष्णचन्द्रका राज्याभिषेक कर उन्हें पूर्ण रूपसे राजा बना दिया। कृष्णचन्द्र भी अपनी चतुराई और नैतिक बलसे प्रजाका पालन करते थे। बलभद्र भी हमेशा इनका साथ देते थे। श्रीकृष्णके सत्यभामा आदिको लेकर सोलह हजार सुन्दर स्त्रियां थीं और बलराम आठ हजार स्त्रियोंके अधिपति थे। श्रीकृष्ण नारायण और बलराम बलभद्र कहलाते थे। एक दिन राजसभामें श्रीकृष्ण, बलभद्र और भगवान नेमिनाथ वगैरह बैठे हुये थे। उसी समय किसीने पूछा कि इस समय भारतवर्षमें सबसे अधिक बलवान् कौन है ? प्रश्न सुनकर कुछ सभासदोंने श्रीकृष्णके लिये ही सबसे बलवान बतलाया। कृष्णचन्द्र भी अपनी बलवत्ताकी प्रशंसा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये। पर बलभदू बलरामने कहा कि इस समय भगवान् नेमिनाथसे बढ़कर कोई अधिक बलवान् नहीं है। उनके शरीरमें बचपनसे ही अतुल्य पल है । आप लोग जो वत्स कृष्णचन्द्रके
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