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* चौबीस तीमार पुराण *
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कहा कि ये सब तुम्हारे भावी पुत्रके अभ्युदयके सूचक हैं।' उसी समय देवोंने आकर गर्भ कल्याणकका उत्सव किया और स्वर्गसे लाये हुए वस्त्रआभूषणोंसे राजा रानीका खूब सत्कार किया । नौ माह बीतनेपर पुष्प नक्षत्रमें महारानी सुव्रताने तीन ज्ञानसे युक्तपुत्र उत्पन्न किया। उसी समय-देवोंने मेरु पर्वत पर लेजाकर पालकका क्षीर सागरके जलसे कलशाभिषेक किया। अभिषेक विधि समाप्त होने पर इन्द्रानीने कोमल धवल वस्त्रसे शरीर पोछकर उसमें पालोचित आभूषण पहिनाये । इन्द्रने मनोहर शब्दोंमें उसकी स्तुतिकी और धर्मनाथ नाम रक्खा । मेरु पर्वतसे लौटकर इन्द्रने भगवान् धर्मनाथको माता सुब्रताके पास भेज दिया और स्वयं नृत्य सङ्गीत आदिसे जन्मका उत्सव मना कर परिवार सहित स्वर्गको चला गया।
राज्य परिवारमें भगवान् धर्मनाथका बड़े प्रेमसे लालन पालन होने लगा। धीरे धीरे शिशु अवस्था पार कर वे कुमार अवस्था में पहुंचे। उन्हें पूर्वभवके संस्कारसे बिना किसी गुरुके पास पड़े हुए ही समस्त विद्यायें प्राप्त हो गई थी अल्प.वयस्क भगवान् धर्मनाथका अद्भुत पाण्डित्यादेखकर अच्छे अच्छे विद्वा-- नोंके दिमाग चकरा जाते थे । जब धर्मनाथ स्वामीने युवावस्थामें पदार्पण किया तथ उनकी नैसर्गिक शोभा और भी अधिक बढ़ गई थी। अर्द्धचन्द्र के समान विस्तृत ललाट कमल दलसी आंखें तोतासी नाक, मोतीसे दांत पूर्णचन्द्रसा मुख, शङ्खसा कण्ठ, मेरु कटकसा वक्षः स्थल, हाथीकी संडसी भुजायें; स्थूल कन्धे, गहरी,नाभि सुविस्तृत नितम्ब सुदृढ़ अरू-गति शील जड़ायें और आरक्त घरण कमल । उनके शरीरके सभी अवयव-अपूर्व- शोभा धारण कर रहे थे। उनकी आवाज नूतन जलधरकी सुरभ्य गर्जनाके समान सजन-मयूरोको सहसा उत्कण्ठित कर देती थी अब वे राज्य कार्यमें भी पिताको मदद पहुचाने लगे। एक दिन महाराज महासेनने उन्हें युवराज-बनाकर राज्यका बहुत कुछ. भार उनको सुपुर्द कर दिया जिससे उनके कन्धोंको बहुत कुछ आराम मिला था। किसी समय राजा-महासेन राज सभामें बैठे हुए थे। उन्हीं के पासमें, युवराज धर्मनाथ जी-विराजमान थे । मन्त्री, पुरोहित तथा अन्य सभासद भी. अपने अपने योग्य स्थानोंपर बैठे हुए थे उसी द्वारपालके साथ विदर्भ देशके,
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