Book Title: Chobisi Puran
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Dulichand Parivar

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ * चौबीस तीर्थकर पुराण * २०१ PRO पूर्वभव वर्णन जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें मेरु पर्वतसे पूर्वकी ओर एक कच्छपवती देश है। उसमें अपनी शोभासे स्वर्गपुरीको जीतनेवाली एक बोतशोका नामकी नगरी है। किसी समय उसमें वैश्नणव नामका राजा राज्य करता था। राजा वैश्रणव महा बुद्धिमान और प्रतापी पुरुष था। उसने अपने पुरुषार्थसे समस्त पृथ्वीको अपने आधीन कर लिया था। वह हमेशा प्रजाके कल्याण करने में तत्पर रहता था। दीन-दुखियोंकी हमेशा सहायता किया करता था और -कला कौशल विद्या आदिके प्रचारमें विशेष योग देता था। एक दिन राजा वैश्रणय वर्षा ऋतुकी शोभा देखनेके लिये कुछ इष्ट-मित्रोंके साथ बनमें गया था। वहां सुन्दर, हरियाली, निर्मल, निझर, नदियोंकी तरल तरंगें, श्यामल मेघ माला, इन्द्रधनुष, चपलाकी चमक, वलाकाओंका उत्पतन और मयूरोंका मनोहर नृत्य देख र उसकी तबियत बारा बारा हो गई। वर्षाऋतुकी सुन्दर शोभा देखकर उसे बहुत ही हर्ष हुआ। वहीं बनमें घूमते समय राजाको एक विशाल बड़का वृक्ष मिला, जो अपनी शाखाओंसे आकाशके बहु भागको घेरे हुये था। वह अपने हरे हरे पत्तों से समस्त दिशाओं को हरा हरा कर रहा था। और लटकते हुये पत्तों से जमीनको खूब पकड़े हुये था। राजा उस बट वृक्षकी शोभा अपने साथियों को दिखलाता हुआ आगे चला गया। कुछ देर बाद जब वह उसी रास्तेसे लौटा तब उसने देखा कि बिजली गिरनेसे वह विशाल बड़का वृक्ष जड़ तक जल चुका है। यह देखकर उसका मन विषयों से सहसा विरक्त हो गया। वह सोचने लगाकि 'जब इतना सुदृढ़ वृक्ष भी क्षण एकमें नष्ट हो गया तब दूसरा कौन पदार्थ स्थिर रह सकता है ? मैं जिन भौतिक भोगोंको सुस्थिर समझार उनमें तल्लीन हो रहा हूँ वे सभी इसी तरह भङ्ग र हैं । मैंने इतनी विशाल आयु व्यर्थ ही खो दी। कोई ऐसा काम नहीं किया जो मुझे संसारकी महा व्यथासे हटाकर सच्चे सुखकी ओर ले जा सके' इत्यादि विचार करता हुआ राजा वैश्रवण , अपने घर लौट आया और वहां पुत्रको राज्य दे किसी वनमें पहुंचकर श्रीनाग नामक मुनिराजके पास दीक्षित हो गया। वहां उसने उग्र तपस्यासे मा DDIA - मायामा

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435