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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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AIRRITA
का। यह मूर्ख केवल वनका स्मरण कर दुःखी हो रहा है ।...भगवानके उक्त वचन सुनकर उस हाधीको अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया जिससे उसने शीघ्र ही देवव्रत धारण कर लिये । इसी घटनासे भगवान मुनि सुव्रतनाथको भी आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया। वे संसार परिभ्रमणसे एकदम उदास हो गये। उसी समय उन्होंने विषयोंकी निस्सारताका विचार कर उन्हे छोड़नेका सुदृढ़ निश्चय कर लिया। लौकान्तिक देवोंने आकर उनके उक्त विचारोंका समर्थन किया जिससे उनका वैराग्य और भी अधिक बढ़ गया । अपना कार्य पूरा कर लौकान्तिक देव तो अपने स्थानपर चले गये और चतुर्णिकायके देवों ने आकर दीक्षा कल्याणकका उत्सव मनाया। भगवान मुनि सुव्रतनाथ युवराज विजयको राज्य देकर देव निर्मित अपराजिता पालकीपर सवार हो नील नामक वनमें पहुंचे। वहां उन्होंने वैसाख कृष्ण दशमीके दिन श्रवण नक्षत्र में शामके समय तेलातीन दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर एक हजार राजाओंके साथ जिन दीक्षा ले ली। उन्हें जिन दीक्षा लेते ही मनापर्यय ज्ञान तथा अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं। चौथे दिन आहार लेनेके लिये वे राजगृह नगरीमें पहुंचे। वहां उन्हें वृषभसेनने नवधा भक्ति पूर्वक शुद्ध-मासुक आहार दिया । पात्रदानसे प्रभावित होकर देवोंने वृषभसेनके घर पर पञ्चाश्चर्य प्रकट किये । राजगृहीसे लौटकर उन्होंने ग्यारह महीने तक कठिन तपश्चरण किया और फिर वैसाख कृष्ण नवमीके दिन श्रवण नक्षत्रमें शामके समय उसी नील वनमें चम्पक वृक्षके नीचे केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया।
केवल ज्ञानके द्वारा वे विश्वके चराचर पदार्थों को एक साथ जानने लगे थे। उसी समय देवोंने आकर ज्ञान कल्याणकका उत्सव किया। धनपतिने दिव्य सभा-समवसरणकी रचना की। उसके मध्यमें स्थित होकर उन्होंने अपना मौन भंग किया-दिव्य ध्वनिके द्वारा सर्वोपयोगी तत्वोंका स्पष्ट विवेचन किया। चारों मतियोंके दुःखोका लोमहर्षण वर्णन किया, जिससे अनेक भव्य जीव प्रतिवुद्ध होगये थे । इन्द्रकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने अनेक आर्य क्षेत्रोमें बिहार किया और असंख्य नर नारियोंको धर्मका सच्चा स्वरूप समझाया। धीरे धीरे उनके समवसरणमें अनेक भव्य जीवोंने आश्रय लिया था।
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