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* चौबीस तीर्थकर पुराण * "जिसने, भूमण्डलको संचित करनेवाले चक्र रत्नको कुम्भकारके चक्रके समान छोड़ दिया और जिसने अर्हत्य लक्ष्मी तथा धर्मचक्रकी प्राप्तिकी इच्छासे राज्यलक्ष्मीको घरदासी ( पानी भरनेवाली) की तरह छोड़ दिया वे पाप रूपी वैरियोंका विध्वंस करनेवाले भगवान् अरनाथ, भक्तिभावसे नम्रीभूत और संसारसे डरनेवाले भव्यजनोंकी हमेशा रक्षा करें।"
[१] पूर्वभव वर्णन जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके उत्तर तटपर एक कच्छ नामका देश है। उसके क्षेमपुर नगरमें किसी समय धनपति नामका राजा राज्य करता था। वह बुद्धिमान् था, बलवान् था, न्यायवान् था, प्रतापवान् था, और था बहुत ही दयावान् । उसने अपने दानसे कल्पवृक्षोंको और निर्मल यशसे शरच्चन्द्रके मरीचि मण्डलको भी पराजित कर दिया' था उसकी चतुराई और बलका सबसे बड़ा उदाहरण यही था कि अपने जीवन में कभी उसका कोई शत्रु नहीं था। वह दीन दुःखी जीवोंके दुःखको देखकर बहुत ही दुःखी हो जाता था इसलिये वह तन मन धनसे उनकी सहायता किया करता था। उसके राज्यमें राजा प्रजा सभी लोग अपनी अपनी अजीविकाके क्रमोंका उल्लङ्घन नहीं करते थे इसलिये कोई दुखी नहीं था।
किसी एक दिन राजाने अहन्नन्दन नामके तीर्थरसे धर्मका स्वरूप और चतुर्गतियोंके दुःखोंका श्रवण किया जिससे उसका चित्त विषयानन्दसे सर्वथा हट गया। उसने अपना राज्य पुत्र के लिये दे दिया और स्वयं किन्हीं आचार्य के पास दीक्षित हो गया। उनके पास रहकर उसने ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया जिससे उसे तीर्थङ्कर नामक महापुण्य प्रकृतिका बन्ध हो गया । इस तरह कुछ वर्षों तक कठिन तपस्या करनेके बाद उसने आयुके अन्तमें समाधिमरण किया जिससे वह जयन्त नामक अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र हुआ। वहां उसकी आयु तेतीस सागर, प्रमाण थी, लेश्या शुक्ल थी और शरीरकी ऊंचाई एक हाथकी थी। वहां वह अवधिज्ञानसे सातवे नरक तककी बात जान लेता था। तेतीस हजार वर्ष बाद मानसिक, आहार लेता और तेतीस पक्षमें एकबार
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