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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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अत्यन्त घृगा पैदा हो गई । वह सोचने लगा कि मैंने अपना विशाल जीवन व्यर्थ ही खो दिया । जिन स्त्रियों, पुत्रों और राज्यके लिये मैं हमेशा व्याकुल रहता हूँ। जिनके लिये मैं बुरेसे.बुरे कार्य करनेमें नहीं हिचकिचाता वे एक भी मेरे साथ नहीं जावेंगे। मैं अकेला ही दुर्गतियों में पड़कर दुःखकी चक्कियों में पीसा जाऊंगा। ओह! कितना था मेरा अज्ञान ? अभीतक मैं जिन भोगों को सबसे अच्छा मानता था आज वे ही भोग काले सयौकी तरह भयानक मालूम होते हैं । धन्य है महाराज युगंधरको। जिनके दिव्य उपदेशसे पथ भ्रान्त पथिक ठीक रास्तेपर पहुंच जाते हैं। इन्होंने मेरे हृदयमें दिव्य ज्योतिका प्रकाश फैलाया है । जिससे मैं आज अच्छे और बुरेका विचार कर सकने के लिये समर्थ हुआ हूँ। अब जबतक मैं समरत परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ न हो जाऊंगा, इस निर्जन वनके विशुद्ध वायुमण्डलमें निवास नहीं करूंगा तब तक मुझे चैन नहीं पड़ सकती, इत्यादि विचार कर वह घर गया और युवराज धनमित्रके लिये राज्य देकर निःशल्य हो अनेक राजाओंके साथ बनमें जाकर दीक्षित हो गया । दीक्षित होनेके बाद राजा नहीं मुनिराज पद्मोत्तर ने खूब तपश्चरण किया। निरन्तर शास्त्रोंका अध्ययन कर ग्यारह अङ्गोंका ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थकर नामा नाम कर्मकी पुण्य प्रकृतिका बन्ध किया। ___ तदनन्तर आयुके अन्तमें संन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर महाशुक्र स्वर्ग में महाशुक्र नामका इन्द्र हुआ। वहां उसकी सोलह सागरकी आयु थी, चार हाथका शरीर था, पालेश्या थी । वह आठ महीने बाद श्वासोच्छास लेता
और सोलह हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता था । अणिमा, महिमा आदि । ऋद्धियोंका स्वामी था। उसे जन्मसे ही अवधि ज्ञान प्राप्त हो गया था जिस
से वह नीचे चौथे नरकतककी बात जान लेता था। वहां अनेक देवियां अपने दिव्य रूपसे उसे लुभाती रहती थीं। यही इन्द्र आगेके भवमें भगवान वासुपूज्य होगा। कहां? किसके ? कब ? सो सुनिये।
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