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* चौबीस तीयङ्कर पुराण *
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वर्तमान परिचय जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्रमें एक काशी देश है। उसमें गंगाके तटपर एक वाराणसी-बनारस नामकी नगरी है। उस समय उसमें सुप्रतिष्ठित नामक महाराज राज्य करते थे। उनको महारानीका नाम पृथ्वीसेना था। दोनों दम्पति सुखसे रहते थे। उनके शरीरमें न कोई रोग था, न किसो प्रतिद्वन्दीकी चिन्ता ही थी। पाठक ऊपर जिस अहमिन्द्रसे परिचित हो आये हैं, उसकी आय जय वहां सिर्फ छ: माहको बाकी रह गई थी नभीसे यहां महाराज सुप्रतिष्ठके घरपर देवोंने रत्नोंकी वर्षा करनी शुरू कर दी थी। कुछ समय बाद भादों सुदी छठके दिन विशाखा नक्षत्र में महारानी पृथ्वीषणने रात्रिके पिछले भागमें हाथी वृषभ आदि सोलह स्वप्न देखे तथा अन्तमें मुंहमें प्रवेश करता हुआ एक सुरम्य हाथी देखा। अर्थात् उसी समय वह अहमिन्द्र देव पर्याय छोड़कर माता पृथवीषेणके गर्भ में आया। सुबह होते ही जब महारानीने पतिदेवसे स्वप्नोंका फल पूछा, तब उन्होंने हर्षसे पुलकित बदन होते हुए कहा कि 'प्रिये आज तुम्हारा स्त्री जीवन सफल हुआ और मेरा भी गृहस्थ जीवन निष्फल नहीं गया । आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर पुत्रने अवतार लिया है । यह कहकर उन्होंने रानोके लिये तीर्थकरके अगण्य पुण्यकी महिमा बतलाई। पतिदेवके मुंहसे अपने भावी पुत्रकी महिमा सुनकर महारानीके हर्षका पार नहीं रहा। उसी समय देव देवियोंने आकर सुप्रतिष्ठ महाराज और पृथ्वीषेण महारानीका खूब सत्कार किया। स्वर्गसे साथमें लाये हुए वस्त्राभूषणोसे उन्हें अलंकृत किया तथा अनेक प्रकारसे गर्भारोहणका उत्सव मनाया।
इन्द्रकी आज्ञासे अनेक देव कुमारियांको माताकी सेवा करती थीं। जब क्रम क्रमसे गर्भ कालके दिन पूर्ण हो गये तब पृथ्वीषणने ज्येष्ठशुक्ला द्वादशो के दिन अहमिन्द्र नामके शुभ योगमें पुत्र रत्न उत्पन्न किया । पुत्रकी. कांतिसे समस्त प्रसूति गृह प्रकाशित हो गया था इसलिए देवियों ने जो दीपमाला जला रखी थी, उसका सिर्फ मंगल शुभाचार मात्र ही प्रयोजन रह गया था। जन्म होते ही समस्त देव असख्य देव परिवारके साथ बनारस आये और वहां
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