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* चौवीस तीर्थङ्कर पुराण *
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था। भगवान् सुपार्श्वनाथ अपनी मनोरम चेष्टाओंसे उन आर्य महिलाओंको हमेशा हर्षित रखते थे। बीच बीचमें इन्द्र, नृत्य गोष्टी, वाद्य गोष्ठी, संगीत गोष्ठी आदिसे विनोद कराकर भगवानको प्रसन्न करता रहता था। उस समय सुपार्श्वनाथ जो सुख भोगते थे, शतांश भी किसी दूसरेको प्राप्त नहीं था। भोग भोगते हुए भी वे उनमें तन्मथ नहीं होते थे, इसलिये उनके भोगीय भोग नूतन कर्म बन्धके कारण नहीं होते थे। इस तरह सुख पूर्वक राज्य करते हुए जब उनकी आयु बीस पूवाङ्ग कम एक लाख पूर्वकी रह गई तब उन्हें किसी कारणवश संसारके बढ़ानेवाले विषय भोगोंसे विरक्ति हो गई। उन्होंने अपनी पिछली आयुके व्यर्थ बीत जाने पर घोर पश्चात्ताप किया और राज्य कार्य, गृहस्थी पुत्र मित्र आदि सबसे मोह छोड़कर बनमें जा तप करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। लौकान्तिक देवोंने भी आकर उनके विचारों का समर्थन किया । देव देवियोंने नैराग्य वर्द्धक चेष्टाओंसे तपः कल्याणकका उत्सव मनाना प्रारम्भ किया। भगवान् सुपार्श्वनाथ राज्यका भार पुत्रको सौंपकर देवनिर्मित 'मनोगति' नामकी पालकीपर सवार हुए। देव उस पालकी को बनारसके समीपवर्ती सहेतुक बनमें ले गये। पालकीसे उतरकर उन्होंने गुरुजनोंकी सम्मति पूर्वक ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीके दिन विशाग्वा नक्षत्र में शामके समय “ओनमःसिद्धेभ्यः" कहते हुए दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। उनके साथमें एक हजार राजा और भी दीक्षित थे।
मुनिराज सुपार्श्वनाथने दीक्षित होते ही इतना एकाग्र ध्यान किया था जिससे उन्हें उसी समय अनेक ऋद्धियां और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। दो दिनोंके उपवासके बाद वे आहार लेनेके लिये सोमखेट नामके नगरमें गये । वहां राजा महेन्द्रदत्तने पड़गाह कर नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। पात्रदानके प्रभावसे राजा महेन्द्रदत्तके घरपर देवोंने पंचाश्चर्य प्रकट किये। भगवान सुपार्श्वनाथ आहार लेकर बनमें लौट आये। तदनन्तर नौ वर्षांतक उन्होंने छद्मस्थ अवस्थामें मौनपूर्वक रहकर तपश्चरण किया।
एक दिन वे उसी सहेतुक बनमें दो दिनोंके उपवासका नियम लेकर शिरीष वृक्षके नीचे विराजमान हुए। वहीं पर उन्होंने क्षपक श्रेणी चढ़कर
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