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* चौबोस तीथङ्कर पुराण *
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प्राप्त हुई तीन मिद्धियोंसे संयुक्त था। उसकी बुद्धिका तो ठिकाना नहीं था। अच्छे अच्छे मन्त्री जिन कामोंका विचार भी नहीं कर सकते थे और जिन सामयिक समस्याओं को नहीं सुलझा पाते थे उन्हें यह अनायास ही सोच लेता और सुलझा देता था। उसका अन्तःपुर सुन्दरी और सुशीला स्त्रियों से भरा हुआ था। आज्ञाकारी पुत्र थे निष्कण्टक राज्य था, अटूट सम्पत्ति थी
और स्वयं स्वस्थ निरोग था। इस तरह वह हर एक तरहसे सुखी होकर प्रजाका पालन करता था। एक दिन राजा नलिनप्रभ राजसभामें बैठा हुआ था उसी समय बनमालीने आकर कहा कि सहमान बनमें अनन्त नामक जिनेन्द्र आये हैं। उनके प्रतापसे धनकी शोभा बड़ो ही विचित्र हो गई है। वहां सब ऋतुएं एक साथ अपनी शोभा प्रकट कर रही हैं और सिंह हस्ती सर्प नेवला आदि जीव अपना जातीय घर छोड़कर एक दूसरेसे हिल मिल रहे हैं। जिनेन्द्रका आगमन सुनकर राजाको इतना हर्ष हुआ कि उसके सारे शरीरमें रोमांच निकल आये। वह बनमालीको उचित पारितोषिक देकर परिवार सहित अनन्त जिनेन्द्रकी बन्दनाके लिये सहसाम्र बनमें गया। वहां उनकी दिव्य मूर्ति देखते ही उसका हृदय भक्तिसे गद्गद् हो गया। उसने उन्हें शिर झुकाकर प्रणाम किया। अनन्त जिनेन्द्रने प्रभावक शब्दोंमें तत्वोंका व्याख्यान किया और अन्तमें संसारके दुःखोंका निरूपण किया। जिसे सुनकर राजा नलिनप्रभ सहसा प्रति. वुद्ध हो गया वह एक दम संसारसे भयभीत हो उठा। उस सयय उसकी अवस्था ठीक स्वप्न देखकर जागे हुए मनुष्यकी तरह हो रही थी। उसने उसी समय भर्राई हुई आवाजमें कहा-नाथ ! इन दुःखोंसे बचनेका भी क्या कोई उपाय है ? तब अनन्त जिनेन्द्रने संसारके दुःख दूर करनेके लिये सम्पग्दर्शन, सम्यग्यान और सम्यक्चारित्रका वर्णन किया। देशव्रत और महाव्रतका महत्व समझाया। जिससे वह विषयोंसे अत्यन्त विरक्त हो गया उसने घर जाकर पहले तो अपने सुपुत्रके लिये राज्य दिया और फिर बन में जाकर अनेक राजा
ओंके साथ जिन दीक्षा ले ली। वहां ग्यारह अङ्गोका अभ्यास कर सोलह भावनाओंका चिन्तवन किया जिससे उसके तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृतका बन्ध हो गया। आयुके अन्त में सन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर मुनिराज नलिन
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