________________
* चौबीस तीर्थकर पुराण *
१२७
मीठे शब्दों में समझाने लगा कि 'जो वस्तु मनुष्यके पुरुषार्थ से सिद्ध नहीं हो सकती, उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । कर्मों के ऊपर किसका वश है ? तुम्हीं कहो, किसी तीव्र पापका उदय ही पुत्र-प्राप्ति होनेका बाधक कारण, है इसलिये पात्र दान, जिनपूजन व्रत उपवास आदि शुभ कार्य करो जिससे अशुभ कर्माका बल नष्ट होकर शुभ कर्माका बल बढ़ ।'
प्राणनाथका उपदेश सुनकर श्रीमान्ताने बहुत कुछ अंशोंमें पुत्र न होनेका शोक छोड़ दिया और परलेकी अपेक्षा बहुत अधिक पात्रदान आदि शुभक्रियाएं करने लगी। ____एक दिन राजा श्रीषेण महारानी श्रीकान्ताके साथ बनमें घूम रहा था कि वहांपर उसकी दृष्टि एक मुनिराजके ऊपर पड़ी, उसने रानीके साथ साथ उन्हें नमस्कार किया और धर्म श्रवण करनेको इच्छासे उनके पास बैठ गया। मुनिराजने सारगर्भित शब्दोंमें धर्मका व्याख्यान किया, जिससे राजाका मन बहुत ही हर्षित हुआ। धर्मश्रवण करनेके बाद उसने मुनिराजसे पूछा-'नाथ ! मैं इस तरह कबतक गृह जंजाल में फंसा रहूँगा ? क्या कभी मुझे दिगम्बर मुद्रा धारण करनेका सौभाग्य प्राप्त होगा?" उत्तरमें मुनिराजने कहा राजन ! तुम्हारे हृदयमें हमेशा पुत्रकी इच्छा बनी रहती है सो जबतक तुम्हारे पुत्र न होगा तबतक वह इच्छा तुम्हारा पिंड न छोड़ेगी। घस, पुत्रकी इच्छा ही तुम्हारे मुनि बनने में वाधककरण है। आपकी इस हृदयवल्लभा श्रीकांताने पूर्वभवमें गर्भभारसे पीड़ित एक नूननयुतिको देखकर निदान किया था कि 'मेरे कभी यौवन अवस्थामें सन्तान न हो'। इस निदानके कारण ही अबतक इसके पुत्र नहीं हुआ है । पर अय निदान वधके कारण बंधे हुए दुष्कर्मीका फल दूर होनेवाला है, इसलिये शीघ्र ही इसके पुत्र होगा । पुत्रको राज्य देकर आप भी दीक्षित हो जावेंगे' यह कहकर उन्होंने माहात्म्य बतलाकर राजा रानीके लिये आष्टान्हिका व्रत दिया। राज दम्पती मुनिराजके द्वारा दिये हुए व्रतको हृदय से स्वीकार कर घरको वापिस लौट आये। जव आष्टाहिक पर्व आया तब दोनोंने अभिषेक पूर्वाक सिद्ध यन्त्रकी पूजाकी और आठ दिनतक यथाशक्ति उपवाम किये जिनसे उन्हें असीम पुण्य कर्मका बन्ध हुआ।