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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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ने उसका नाम अजित सेना रखा। अजितसेन पड़े प्यारसे पाला गया। जब उसकी अवस्था योग्य हो गई तव राजा अजितंजयने उसे युवराज बना दिया
और तरह तरहकी राजनीतिका उपदेश दिया। • एक दिन महारानी अजितंजय युवराज अजितसेनके साथ राज सभामें यैठे हुए थे कि इतने में वहांसे एक चन्द्र रुचि नामका असुर निकला। ज्योंही उसकी दृष्टि युवराजपर पड़ी त्योंही उसे अपने पूर्व भवके बैरका स्मरण हो आया। वह क्रोधसे कांपने लगा, उसकी आंखें लाल हो गई और भौंहे टेंढ़ी। 'बदला चुकानेके लिये यही समय योग्य है' ऐसा सोचकर उसने समस्त सभा के लोगोंको मायासे मूर्छित कर दिया और युवराजको उठाकर आकाशमें ले गया। इधर जब माया मूळ दूर हुई तब राजा अजितंजय पासमें पुत्रको न पाकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने उस समय हृदयको पानी पानी कर देनेवाले शब्दों में विलाप किया पर कोई कर ही क्या सकता था। चारों ओर वेगशाली घुड़सवार छोड़े गये, गुप्तचर छोड़े गये पर कहीं उसका पता न चला। उसी दिन जब राजा पुत्रके विरहमें सदन कर रहा था तब आकाशसे कोई तपोभूषण नामके मुनिराज राजसभामें आये। राजाने उनका योग्य सत्कार किया। मुनिराजके आगमनसे उसे इतना अधिक हर्ष हुआ था कि वह उस समय पुत्रके, हरे जानेका भी दुख भूल गया था। उसने नम्र वाणीमें मुनिराजकी स्तुति की। 'धर्मवृद्धिरस्तु' कहते हुए मुनिराजने कहा - राजन् ! मैं अवधिज्ञान रूपी लोवनसे तुम्हें व्याकुल देखकर संसारका स्वरूप बतलानेके लिये आया हूँ। संसार वही है जहांपर इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग हुआ करते हैं। अशुभ कर्मके उदयसे प्रायः समस्त प्राणियोंको इन्टका वियोग और अनिष्ट का संयोग हुआ करता है । आप विद्वान हैं इसलिये आपको पुत्र वियोगका दुःख नहीं करना चाहिये । विश्वास रखिये, आपका पुत्र कुछ दिनों में बड़े वैभवके साथ आपके पास आ जायेगा। इतना कहकर मुनिराज तपोभूषण आकाश मार्गसे बिहार कर गये और राजा भी शोक-आश्चर्य पूर्वक समय बिताने लगे। अब सुनिए युवराजका हाल
चन्द्ररुचि असुर युवराजको सभा क्षेत्रसे उठाकर आकाशमें ले गया और