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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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चारित्र मोहनीयके बन्धन ढीले हो गये थे जिससे वे संसारके विषय भोगोंसे सहसा विरक्त हो गये। वे सोचने लगे कि 'संसारकी सभी वस्तुएं इस मेघ खण्डकी नाई क्षणभङ्गर हैं, एक दिन मेरा यह दिव्य शरीर भी नष्ट हो जायेगा मैं जिस स्त्री पुत्रोंके मोहमें उलझा हुआ आत्म हितकी ओर प्रवृत्त नहीं कर रहा हूँ वे एक भी मेरे साथ न जावेंगे। इस तरह भगवान शंभवनाथ उदासीन होकर वस्तुका स्वरूप विचार ही रहे थे कि इतनेमें लौकान्तिक देवोंने आकर उनके विचारोंका खुप समर्थन किया। बारह भावनाओंके द्वारा उनकी वैराग्य धाराको खूब बढ़ा दिया । अपना कार्य ममाप्त कर लौकान्तिक देव ब्रह्म लोको वापिस चले गये। इधर भगवान जिन पुत्रको राज्य देकर बनमें जाने के लिये तैयार हो गये। देव और देवेन्द्रोंने आकर इनके तपः कल्याणकका उत्सव मनाया। तदनन्नर वे सिद्धार्थ नामकी पालकोपर सवार होकर श्रावस्ती के समीपवर्ती सहेतुक बनमें गये । वहाँ उन्होंने माता पिता आदि इष्ट जनोंसे सम्मति लेकर मार्गशीर्ष शुक्ला पौर्णमासीके दिन शाल वृक्षके नीचे एक हजार राजाओं के साथ जिन दीक्षा ले ली, वस्त्राभूषण उतार फेंक दिये, पञ्च मुष्ठियोंसे केश उखाड़ डाले और उपवासकी प्रतिज्ञा ले पूर्वकी ओर मुंहकर ध्यान धारण कर लिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही प्रभावक था । देखने वाले प्रत्येक प्राणोके हृदयपर वैराग्यकी गहरी छाप लगती जाती थी। उन्हें जो दीक्षाके समय ही मनः पर्यय ग्यान हो गया था वही उनकी आत्म विशुद्धि को प्रत्यक्ष करानेके लिये प्रबल प्रमाण था।
दूसरे दिन उन्होंने आहारके लिये श्रावस्ती नगरीमें प्रवेश किया। उन्हें देखते हो राजा सुरेन्द्र दत्तने पड़गाह कर विधि पूर्वक आहार दिया। आहार दानसे प्रभावित होकर देवोंने सुरेन्द्रदत्तके घर पंचाश्चर्य प्रकट किये थे। भगवान शभवनाथ आहार लेकर ईर्या समितिसे विहार करते हुए पुनः बनको वापिस चले गये और जब तक छदमस्थ रहे तब तक मौन धारण कर तपस्या करते रहे । यद्यपि वे मौनी होकर ही उस समय सब जगह विहार करते थे तथापि उनकी सौम्य मूर्तिके देखने मात्रसे ही अनेक भव्य जीव प्रतिवुद्ध हो जाते थे। इस तरह चौदह वर्ष तक तपस्या करनेके बाद उन्हें कार्तिक कृष्ण
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