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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
प्रजा दुखी हो । महाराज मेघरथ दीक्षित होनेके पहले ही उनका योग्य कुलीन कन्याओंके साथ पाणिग्रहण विवाह कर गये थे। सुमतिनाथ उन नर देवियोंके साथ अनेक सुख भोगते हुए अपना समय व्नतीत करते थे । इस तरह राज्य करते हुए जब उनके उन्नीस लाख पूर्व और बारह पूर्वाङ्ग बीत चुके तब किसी दिन कारण पाकर उनका चित्त विषय वासनाओंसे विरक्त हो गया जिससे उन्हे संसारके भोग विरस और दुःखप्रद मालूम होने लगे । ज्यों ही उन्होंने अपने अतीत जीवन पर दृष्टि डाली त्योंही उनके शरीरमें रोमाञ्च खड़े हो गये । उन्होंने सोचा "हाय, मैने एक मूर्खकी तरह इतनी विशाल आयु पर्थ ही गंवा दी 'दूसरोंके हितका मार्ग बतलाऊ, उनका भला करूं' यह जो मैं बचपन में सोचा करता था वह सब इस योवन और राज्य सुखके प्रवाह में प्रवाहित हो गया । जैसे सैकड़ों नदियों का पान करते हुए भी समुद्रको तृप्ति नहीं होती वैसे इन विपय सुखों को भोगते हुए भी प्राणियों को तृप्ति नहीं होती । ये विषयाभिलाषाएं मनुष्यको स्वार्थकी ओर - आत्म हिनकी ओर कदम नहीं बढ़ाने देतीं । इसलिये अब मैं इन विषय वासनाओं को जलाञ्जलि कर आम हितकी ओर प्रवृत्ति करता हूँ" ।
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इधर भगवान् सुमति नाथ विरक्त हृदयसे ऐसा विचार कर रहे थे उधर आसन कंपन से लौकान्तिक देवोंको इनके वैराग्यका ज्ञान हो गया था जिससे वे शीघ्र ही इनके पास आये और अपनी विरक्त वाणीसे इनके वैराग्यको बढ़ाने लगे । जब लौकान्तिक देवोंने देखा कि अब इनका हृदय पूर्ण रूपसे विरक्त हो चुका है तब वे अपनी अपनी जगह पर वापिस चले गये और उनके स्थान पर असंख्य देव लोग आ गये । उन्होंने आकर वैराग्य महोत्सव मनाना प्रारम्भ कर दिया । पहिले जिन देवीकी संगीत, नृत्य तथा अन्य चेष्टाएं राग यढ़ाने वाली होती थी आज उन्हीं देवोंकी समस्त चेष्टाएं बैराग्य बढ़ा रहीं थीं ।
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भगवान् सुमति नाथ पुत्रके लिये राज्य देकर देव निमित 'अभया' पालकी पर बैठ गये । देव लोग 'अभया' को अयोध्या के समीप वर्ती सहेतुक नामक बनमें ले गये वहां उन्होने नर सुरकी साक्षीमें जगद्वन्य सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर बैसाख शुक्ला नवमीकें दिन मध्यान्हके समय मघा नक्षत्रमें