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* चौवीस तीर्थकर पुराण *
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पूर्वभव परिचय दूसरे धातकी खण्ड द्वीपमें पूर्वमेरुसे पूर्वकी ओर विदेह क्षेत्रमें सीतानदी के उत्तर तटपर पुष्कलावती नामक देश है । उसमें पुण्डरोकिणी नगरी है जो अपनी शोभासे पुरन्दरपुरी अमरावतीको भी जीतती है। किसी समय उसमें रतिषेण नामक राजा राज्य करते थे। महाराज रतिषणने अपने अतुलकाय चलसे जिस तरह बड़े बड़े शत्रुओंको जीत लिया था उसी तरह अनुपम मनोवलसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्या और मोह इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओंको भी जीत लिया था। वे बड़े ही यशस्वी थे, दयालु थे, धर्मात्मा थे,
और थे सच्चे नीतिज्ञ । अनेक तरहके विषय भोगते हुए जब उनकी आयुका बहुभाग व्यतीत हो गया तब उन्हें एक दिन किसी कारणवश संसारसे उदासीनता हो गई। ज्योंही उन्होंने विवेकरूपी नेत्रसे अपनी ओर देखा त्यों ही उन्हें अपने बीते हुए जीवनपर बहुत ही सन्ताप हुआ। वे सोचने लगे-'हाय मैंने अपनी विशाल आयु इन विषय सुखोंके भोगने में ही विता दी पर विषय सुख भोगनेसे क्या सुख मिला है ? इसका कोई उत्तर नहीं है। मैं आजतक भ्रमवश दुःखके कारणोंको ही सुखका कारण मानता रहता हूँ। ओह !' इत्यादि विचार कर वे अतिरथ पुत्रके लिये राज्य दे वनमें जाकर कठिन तपस्याएं करने लगे। उन्होंने अर्हन्नन दन गुरुके पास रहकर ग्यारह अङ्गोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका शुद्ध हृदयसे चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का वन्ध हो गया । मुनिराज रतिषेण आयुके अन्तमें सन्यास पूर्वक मरकर वैजन्त विमानमें अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी आयु तेनीस सागर वर्ष की थी शरीर एक हाथ ऊंचा और रंग सफेद था। वे तेतीस हजार वर्ष बाद एक वार मानसिक आहार लेते और तेतोस पक्षमें सुरभित श्वास लेते थे। इम तरह वहां जिन अर्चा और तत्ववर्चाओंसे अहमिन्द्र रतिषणके दिन सुखसे बीतने लगे। यही अहमिन्द्र आगेके भवमें कथानायक भगवान मुमति होंगे।