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* चौबीस तीथङ्कर पुराण*
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इस तरह कठिन तपश्चरण करते हुए उन्होंने छद्मस्थ अवस्थाको दो वर्ष मौन पूर्वक बिताये। इसके बाद वे उसी सहेतुक बनमें पीपल वृक्षके नीचे ध्यान लगाकर विराजमान थे कि उत्तरोत्तर विशुद्धताके बढ़नेसे उन्हें चैत्र कृष्णा अमावस्याके दिन रेवती नक्षत्र में दिव्य आलोक-केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। उसी समय देवोंने आकर समवसरणकी रचना की और ज्ञान कल्याणकका उत्सप किया। भगवान् अनन्तनाथने समवसरणके मध्यमें विराजमान होकर दिव्य ध्वनिके द्वारा मौन भङ्ग किया। स्याबाद पताकासे अक्षित जीव अजीव तत्वोंका व्याख्यान किया। संसारका दिग्दर्शन कराया उसके दुःखोंका वर्णन किया। जिससे प्रति बुद्ध होकर अनेक मानवोंने मुनि दीक्षा ग्रहण की। प्रथम उपदेश,समाप्त होनेके याद उन्होंने कई जगह विहार किया। जिससे प्रायः सभी ओर जैन धर्मका प्रकाश फैल गया था। इनके उत्पन्न होनेके पहले जो कुछ धर्म का विच्छेद होगयाथा वह दूर हो गया और लोगोंके हृदयोंमें धर्मसरोवर लहरा ने लगा। उनके समवसरणमें जय आदि पचास गणधर थे एक हजार द्वादशात के जानकार थे, तीन हजार दो सौ बादी-शास्त्रार्थ करने वाले थे, उनतालीस इजार पांच सौ शिक्षक थे, चार हजार तीन सौ अवधि ज्ञानी थे, पांच हजार केवली थे, आठ हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक थे। इस तरह सब मिलाकर छयासठ हजार मुनिराज थे। 'सर्व श्री' आदि एक लाख आठ हजार आर्यिकाएं थी। दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकायें, असंख्यात देव देवियां और संख्यात तिर्यञ्च थे। समस्त आर्य क्षेत्रोंमें विहार करने के बाद वे आयुके अन्त में सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए वहां उन्होंने छह हजार मुनियोंके साथ योग निरोध कर एक महीने तक प्रतिमा योग धारण किया। उसी समय सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और न्युपरत क्रिया निबृत्ति शुक्ल ध्यानोंके द्वारा अवशिष्ट अघातिया कर्मों का नाशकर चैत्र कृष्ण अमावस्याके दिन उषाकालमें मोक्ष भवनमें प्रवेश किया। देवोंने आकर निर्वाण क्षेत्रकी पूजाकी और उनके गुण गाते हुए अपने अपने घरोंकी ओर प्रस्थान किया।
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