________________
२१८
* चौवीस तीथङ्कर पुराण
-
गई थी। योग्य अवस्था देखकर राजा अहंदासने उसके कुलीन कन्याओंके साथ विवाह बन्धन कर दिया और कुछ समय बाद उसे युवराज भी धनादिया।
किसी एक दिन धनमालीने राजा अहंदासके वनमें विमलवाहन नामक तीर्थकरके आनेका समाचार कहे । जिससे राजा प्रसन्न चित्त हो समस्त परिवारके साथ उनकी वन्दनाके लिये गया। वहां उसने तीन प्रदक्षिणायें देकर उन्हें भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और मनुष्योचित स्थान पर बैठकर धर्मका स्वरूप सुना। तीर्थकर देवके उपदेशसे विषय विरक्त होकर उमने युवराज अपराजितके लिये राज्य दे दिया और आप उन्हीं विमल वाहन मुनिराजके पास दीक्षित हो गया। कुमार अपराजितने भी सम्यग्दर्शन और अणुव्रत धारण कर राजधानीमें प्रवेश किया। वहां वह राज्यकी समस्त व्यवस्था सचिवोंके आधीन छोड़कर धर्म और कामके सेवनमें लग गया। एक दिन उसने सुना कि, पूज्य पिताजीके साथ साथ श्रीविमलवाहन तीर्थकर गन्धमादन पर्वतसे मुक्त हो गये हैं। यह सुनकर उसने प्रतिज्ञा की कि मैं श्री विमलवाहन तीर्थकरके बिना दर्शन किये भोजन नहीं करूंगा। इस तरह बिना भोजन किये उसको आठ दिन हो गये तव इन्द्रकी आज्ञा पाकर यक्षपतिने अपनी मायासे विमलवाहन तीर्थंकरका साक्षात् स्वरूप बनाकर दिखलाया। अपराजित समवसरणमें वन्दना कर उनकी पूजा की और फिर भोजन किया ।
किसी एक दिन राजा अपराजित फाल्गुन मासकीआष्ठाहिकाओंके दिनोंमें जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर जिन मन्दिरमें बैठा हुआ धर्मोपदेश कर रहा था। इत नेमें ही वहांपर चारण ऋद्धि धारी दो मुनिराज आये। राजाने खड़े होकर दोनों मुनिराजोंका स्वागत किया और भक्ति पूर्वक नमस्कार कर उन्हें योग्य आसनपर बैठाया। कुछ देर तक धर्म चर्चा होनेके बाद राजाने मुनिराजसे कहा कि महाराज ! मैंने कभी आपको देखा है । यह सुनकर घड़े मुनिराज बोले'ठीक, आपने मुझे अवश्य देखा है पर कहां ? यह आप नहीं जानते इसलिये मैं कहता हूँ सुनिये
पुष्कराध द्वीपके पश्चिम मेरुकी ओर पश्चिम विदेह क्षेत्रमें जो गन्धिल नामका देश है उसके विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें एक सूर्यप्रभ नामका
-