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* चौबीस तीर्थक्कर पुराण *
पूर्व भवके संस्कारसे इन दोनों में पड़ा भारी स्नेह था। बड़े होनेपर विजय पलभद्र पदवीका धारक हुआ और त्रिपृष्ठने नारायण पदवी पाई। मुनि निन्दाके पापसे विशाखनन्दीका जीव अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ विजयाधं पर्वतकी उत्तर श्रेणीपर अलका नगरीके राजा मयूरग्रीवकी नीलाञ्जना रानीसे अश्वग्रीव नामका पुत्र हुआ । वह बचपनसे ही उद्दण्ड प्रकृतिका था। फिर बड़ा होनेपर तो उसकी उद्दण्डताका पार नहीं रहा था। उसके पास चक्ररत्न था, जिससे वह तीन खण्डपर अपना आधिपत्य जमाये हुए था। किसी कारणवश त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीवमें जमकर लड़ाई हुई तब अश्वग्रीवने क्रोधित होकर त्रिपृष्ठपर अपना चक्र चलाया। पर चक्ररत्न तीन प्रदक्षिणाए देकर त्रिपृष्ठके हाथमें आ गया । तप इसने उसी चक्ररत्नके प्रहारसे अश्वग्रीवको मार डाला और स्वयं त्रिपृष्ठ तीन खण्डोंका राज्य करने लगा। तीन खण्डका राज्य पाकर भी और तरह तरहके भोग भोगते हुए भी उसे कभी तृप्ति नहीं होती थी। वह हमेशा विषय सामग्रीको इकत्रित करनेमें लगा रहता था। जिससे वहत्रिपृष्ठ मरकर सातवें नरकमें नारकी हुआ वहां वह तेतीस सागर पर्यन्त भय. ङ्कर दुःख भोगता रहा। फिर वहांसे निकलकर जम्बूद्वीप भरत-क्षेत्रमें गङ्गा नदीके किनारे सिंहगिरि पर्वतपर सिंह हुआ। वहां उसने अनेक वन-जन्तुओंका नाशकर पाप उपार्जन किये। जिनके फलसे वह पुनः पहले नरकमें गया
और वहां कठिन दुःख भोगता रहा । वहांसे निकलकर जम्बू द्वीपमें सिहकूटके पूर्वकी ओर हिमवान् पर्वतकी शिखरपर फिरसे सिंह हुआ। वह एक समय अपनी पैनी डाढोंसे एक मृगको मारकर खा रहा था कि इतनेमें वहांसे अत्यन्त कृपालु चारण ऋद्धिधारी अजितञ्जय और अमित गुण नामके मुनिराज निकले । सिंहको देखते ही उन्हें तीर्थङ्करके वचनोंका स्मरण हो आया । वे किन्हीं तीर्थङ्करके समवसरणमें सुनकर आये हुए थे कि हिमकूट पर्वतपरका सिंह दशवें भवमें महावीर नामका तीर्थङ्कर होगा। अजितंजय मुनिराजने अवधि ज्ञानके द्वारा उसे झटसे पहिचान लिया । उक्त दोनों मुनिराज आकाशसे उतरकर सिंहके सामने एक शिलापर बैठ गये। सिंह भी चुपचाप वहींपर बैठा रहा । कुछ देर बाद अजितंजय मुनिराजने उस सिंहको सार गर्भित शब्दोंमें समझाया कि
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