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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
देखकर मुनि हो गये और अपना राज्य छोटे भाई विशाखभूतिके लिये दे गये तथा अपने पुत्रनिश्वनन्दीको युवराज बना गये।
एक दिन युवराज विश्वनन्दी अपने मित्रोंके साथ राजोद्यानमें क्रीड़ाकर रहा था कि इतनेमें वहांसे नये राजा विशाखभूतिका पुत्र विशाखनन्द निकला। राजोद्यानकी शोभा देखकर उसका जी ललचा गया। उसने झटसे अपने पितासे कहा कि आपने जो वन विश्वनन्दीको दे रक्खा है वह मुझे दीजिये नहीं तो मैं घर छोड़कर परदेशको भाग जाऊंगा । राजा विशाखभूति भी पुत्रके मोहमें आकर बोला-'बेटा! यह कौन बड़ी बात है ? मैं अभी तुम्हारे लिये वह उद्यान दिये देता हूं' ऐसा कहकर उसने युवराज विश्वनन्दीको अपने पास बुलाकर कहा कि मुझे कुछ आततायियोंको रोकनेके लिये पर्वतीय प्रदेशोंमें जाना है । सो जबतक मैं लौटकर वापिस न आ जाऊं तबतक राज्य कार्योंकी देख भाल करना....' काकाके बचन सुनकर भोले विश्वनन्दोने कहा कि-'नहीं आप यहींपर सुखसे रहिये, मैं पर्वतीय प्रदेशोंमें जाकर उपद्रवियोंको नष्ट किये आता हूं......' राजाने विश्वनन्दीको कुछ सेनाके साथ पर्वतीय प्रदेशों में भेज दिया और उसके अभावमें उसका वगीचा अपने पुत्र के लिये दे दिया। जब विश्वनन्दीको राजाके इस कपटका पता चला तब वह बीचसे ही लौटकर वापस चला आया। और विशाखनन्दको मारनेके लिये उद्योग करने लगा। विशाख. नन्द भी उसके भयसे भागकर एक कैथके पेड़पर चढ़ गया परन्तु कुमार विश्व नन्दीने उसे मारनेके लिये वह कैथका पेड़ ही उखाड़ डाला। तदनन्तर वह भागकर एक पत्थरके खम्भेमें जा छिपा । परन्तु विश्वनन्दीने अपनी कलाईकी चोटसे उस खम्भेको भी तोड़ डाला। जिससे वह वहांसे भागा। उसे भागता हुआ देखकर युवराज विश्वनन्दीको दया आ गई । उसने कहा-'भाई ! मत भागो, तुम खुशीसे मेरे बगीचेमें क्रीड़ा करो, अब मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है। अब मुझे जङ्गलके सूखे कटीले झंखाड़ झाड़ ही अच्छे लगेंगे...' ऐसा कहकर उसने संसारकी कपट भरी अवस्थाका विचार करके किन्हीं सम्भूत नाम के मुनिराजके पास जिन दीक्षा ले ली। इस घटनासे राजा विशाखभूतिको भी बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने मनमें सोचा कि मैंने व्यर्थ ही पुत्रके मोहमें आकर
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