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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
राज समाधि पूर्वक शरीर त्यागकर सुभद्र नामक मध्यमवेयकमें अहमिन्द्र हुए । वहां उनकी आयु सत्ताईस सागर की थी। कुरङ्ग भील भी मुनिहत्याके पापसे सातवें नरकमें नारकी हुआ। मरुभूतिका जीव अहमिन्द्र, अवेयककी सत्ताईस सागर प्रमाण आयु पूरी कर इसी जम्बू द्वीपमें कौशल देशकी अयोध्या नगरीमें इक्ष्वाकुवंशीय राजा बजवाहुकी प्रभाकरी पत्नीसे आनन्द नामका पुत्र हुआ। वह बहुत ही सुन्दर था। आनन्दको देखकर सभीका आनन्द होता था । बड़ा होनेपर आनन्द महामण्डलेश्वर राजा हुआ। उसके पुरोहितका नाम स्वामिहित था।
एक दिन पुरोहित स्वामिहितने राजाके सामने आष्टान्हिक व्रतके माहाम्यका वर्णन किया जिससे उसने फाल्गुन माहकी आष्टाह्निकाओंमें एक बड़ी भारी पूजा करवाई। उसे देखनेके लिये वहाँपर एक विपुलमति नामके मुनिराज पधारे । राजाने विनयके साथ उनकी वन्दना की और ऊंचे आसनपर बैठाया। पूजा कार्य समाप्त होनेपर राजाने मुनिराजसे पूछा कि-"महाराज ! जिनेन्द्र देवकी अचेतन प्रतिमा जब किसीका हित और अहित नहीं कर सकती तब उसकी पूजा करनेसे क्या लाभ है ?' राजाका प्रश्न सुनकर उन्होंने कहा-'यह ठीक है कि जिनराजकी जड़ प्रतिमा किसीको कुछ दे नहीं मकती । पर उसके सौम्य, शान्त आकारके देखनेसे हृदयमें एकबार वीतरागताकी लहर उत्पन्न हो उठती है, आत्माके सच्चे स्वरूपका पता चल जाता है और कषाय रिपुओंकी धींगाधांगी एकदम धन्द हो जाती है। उससे बुरे कर्मोकी निर्जरा होकर शुभ कर्मोका बन्ध होता है जिनके उदयकालमें प्राणियों को सुखको सामग्री मिलती है। इसलिये प्रथम अवस्थामें जिनेन्द्रको प्रतिमाओंकी अर्चा करनी बुरी नहीं है।' इतना कहकर उन्होंने राजा आनन्दके सामने अकृत्रिम चैत्यालयोंका वर्णन करते हुए आदित्य-सूर्य विमानमें स्थित अकृत्रिम जिन बिम्बोंका वर्णन किया । जिसे सुनकर समस्त जनता अत्यन्त हर्षित हुई । आनन्दने हाथ जोड़कर सूर्य विमानकी प्रतिमाओंको लक्ष्यकर नमस्कार किया और अपने मन्दिरमें अनेक चमकीले रत्नोंका विमान बनवाकर उनमें रत्नमयी प्रतिमाएं विराजमान की । जिन्हें वह सूर्य विमानकी प्रतिमाओंकी