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* चोवीस तीर्थकर पुराण *
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राहुका कुछ भी अनिष्ट नहीं करता फिर भी उसे ग्रस लेता है वैसे ही दुष्ट मनुष्य अनिष्ट नहीं करनेवाले सजनोपर भी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते । यह संसार प्रायः इन्हीं कमठ जैसे खल मनुष्योंसे भरा हुआ है। पर मरुभूति ! मैं तुम्हें जानता था, खूप जानता था कि तुम्हारा हृदय स्फटिककी तरह निर्मल था तुम्हारे हृदय में हमेशा प्रीति रूपी मन्दाकिनीका पावन प्रवाह बहा करता था । हमारे मना करनेपर भी तुम भाईके स्नेहको नहीं तोड़ सके इसलिये अन्त में मृत्युको प्राप्त हुए। अहा ! मरुभूति !...'' इत्यादि विचार करते हुए उसका मन संसारसे विरक्त हो गया जिससे किन्हीं तपस्वीके पास उसने जिन दीक्षा धारण कर ली। दीक्षाके कुछ समय बाद अरविन्द मुनिराज अनेक मुनियोंके साथ सम्मेद शिखरकी यात्राके लिये गये । चलते चलते वे उसी सल्लकी वनमें पहुंचे जहां मरुभूतिका जीव वज्रघोप हाथी हुआ था । सामायिकका समय देख कर अरविन्द महाराज वहीं किसी एक शिलापर प्रतिमा योग धारणकर विराजमान हो गये । जब वज्रघोपकी दृष्टि मुनिराजपर पड़ी तब वह उन्हें मारनेके लिये वेगसे दौड़ा। पर ज्यों ही उसने अरविन्द मुनिराजके वक्षःस्थलपर श्री. वत्सका चिह्न देखा त्योंहो उसे अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया। उसने उन्हें देखकर पहिचान लिया कि ये हमारे अरविन्द महाराज हैं । वज्रघोष एक विनीत शिष्यकी तरह शान्त होकर उन्हींके पास बैठ गया। उन्मत्त हाथी मुनिराजके पास आकर एकदम उपशान्त हो गया-यह देखकर सभीको आश्चर्य हुआ। सामायिक पूर्ण होनेपर अरविन्द मुनिराजने अवधि ज्ञानसे उसे मरुभूतिका जीव समझकर खूब समझाया जिससे उसने सब वैर भाव छोड़कर सम्यग्दर्शनके साथ-माथ पांच अणुव्रत धारण कर लिये । अरविन्द महाराज अपने संघके साथ आगे चले गये। ___एक दिन बज्रयोप पानी पीने के लिये किसी भदभदाके पास जा रहा था पर दुर्भाग्यसे वह उसीके किनारेपर पड़ी भारी कोचड़में फंम गया। उसने उससे निकलनेके लिये बहुत कुछ प्रयत्न किये पर वह निकल नहीं सका। तापसी कमठ मरकर उसी भदभदाके किनारे कुक्कुट जातिका सांप हुआ था उसने पूर्वभवके वैरसे उस प्यासे हाथीको डश लिया वह मरकर अणुव्रतोंके