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* चौबीस तीर्थकर पुराण
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और भी अधिक पढ़ा लिया। लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा लेनेका समर्थन किया। निदान-महाराज धनस्थ युवराज मेघरथको राज्य दे घनमें जाकर दीक्षित हो गये। इधर कुमार मेघरधने भी अनेक साधु उपायोंसे प्रजाका पालन शुरू कर दिया जिससे समस्त प्रजा उस पर अत्यन्त मुग्ध हो गई। किसी एक दिन राजा मेघरथ अपनी स्त्रियों के साथ देव रमण नामके घनमें घूमता हुआ एक चन्द्रकान्त शिला-पर बैठ गया। जहां वह बैठा था वहीं पर आकाशमें एक विद्याधर जा रहा था । जय उसका विमान मेघरथके ऊपर पहुंचा तय वह सहसा रुक गया। विद्याधरने विमान रुकनेका कारण जाननेके लिये सव ओर दृष्टि डाली। ज्यों ही उसकी दृष्टि मेघरथ पर पड़ी त्योंही यह क्रोधसे आगबबूला हो गया । वह झटसे नीचे उतरा और उस शिलाको जिस पर कि मेघरथ बैठा हुआ था, उठानेका प्रयत्न करने लगा। परन्तु राजा मेघरथने उस शिलाको अपने पैरके अंगूठेसे दवा दिया जिससे वह विद्याधर शिलाका भारी बोझ नहीं सह सका । अन्तमें वह जोरसे चिल्ला उठा। उसकी आवाज सुनकर उसकी स्त्रीने विमानसे उतर कर - मेघरथसे पतिकी भिक्षा मांगी। तब उसने भी पैरका अंगूठा उठा लिया जिससे विद्याधरकी जान बच गई। ___ यह हाल देखकर मेघरथकी प्रिय मित्राने उससे पूछा। यह सबक्या औरक्यों हो रहा है। १ तय मेघरथ कहने लगा-'प्रिये ! यह, विजया पर्वतकी अलका नगरीके राजा विद्युदंष्ट्र और रानी अनिलवेगाका प्यारा पुत्र सिंहरथ नामका विद्याधर है । इधर अमित वाहन तीर्थङ्करकी : पन्दना-कर आया। जब इसका विमान मेरे ऊपर आया तब वह कीलित हुए की तरह आकाशमें रुक गया। जब उसने सब ओर देखा तय मैं ही दिखा, इसलिये मुझे ही विमानका रोकनेवाला समझकर वह क्रोधसे आग बबूला हो गया और इस शिलाको जिस पर हम सब धैठे हुए हैं उठानेका, यत्न करने लगा तब मैंने पैरके अंगठेसे शिला को दया दिया जिससे वह चिल्लाने लगा। उसकी चिल्लाहट सुनकर यह उसकी स्त्री आई और इतना कह कर मेघरथने उस सिंहरथ विद्याधरके पूर्वभव कर सुनाये जिससे वह पानी पानी हो गया और पास जाकर राजा मेघरथकी खूप प्रशंसा करने लगा तथा सुवर्ण तिलक-नामक पुत्रके लिये राज्य देकर दीक्षित
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