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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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पूर्वभव वर्णन जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें मेरु पर्वतसे पूर्वकी ओर एक कच्छपवती देश है। उसमें अपनी शोभासे स्वर्गपुरीको जीतनेवाली एक बोतशोका नामकी नगरी है। किसी समय उसमें वैश्नणव नामका राजा राज्य करता था। राजा वैश्रणव महा बुद्धिमान और प्रतापी पुरुष था। उसने अपने पुरुषार्थसे समस्त पृथ्वीको अपने आधीन कर लिया था। वह हमेशा प्रजाके कल्याण करने में तत्पर रहता था। दीन-दुखियोंकी हमेशा सहायता किया करता था और -कला कौशल विद्या आदिके प्रचारमें विशेष योग देता था। एक दिन राजा वैश्रणय वर्षा ऋतुकी शोभा देखनेके लिये कुछ इष्ट-मित्रोंके साथ बनमें गया था। वहां सुन्दर, हरियाली, निर्मल, निझर, नदियोंकी तरल तरंगें, श्यामल मेघ माला, इन्द्रधनुष, चपलाकी चमक, वलाकाओंका उत्पतन और मयूरोंका मनोहर नृत्य देख र उसकी तबियत बारा बारा हो गई। वर्षाऋतुकी सुन्दर शोभा देखकर उसे बहुत ही हर्ष हुआ। वहीं बनमें घूमते समय राजाको एक विशाल बड़का वृक्ष मिला, जो अपनी शाखाओंसे आकाशके बहु भागको घेरे हुये था। वह अपने हरे हरे पत्तों से समस्त दिशाओं को हरा हरा कर रहा था। और लटकते हुये पत्तों से जमीनको खूब पकड़े हुये था। राजा उस बट वृक्षकी शोभा अपने साथियों को दिखलाता हुआ आगे चला गया। कुछ देर बाद जब वह उसी रास्तेसे लौटा तब उसने देखा कि बिजली गिरनेसे वह विशाल बड़का वृक्ष जड़ तक जल चुका है। यह देखकर उसका मन विषयों से सहसा विरक्त हो गया। वह सोचने लगाकि 'जब इतना सुदृढ़ वृक्ष भी क्षण एकमें नष्ट हो गया तब दूसरा कौन पदार्थ स्थिर रह सकता है ? मैं जिन भौतिक भोगोंको सुस्थिर समझार उनमें तल्लीन हो रहा हूँ वे सभी इसी तरह भङ्ग र हैं । मैंने इतनी विशाल आयु व्यर्थ ही खो दी। कोई ऐसा काम नहीं किया जो मुझे संसारकी महा व्यथासे हटाकर सच्चे सुखकी ओर ले जा सके' इत्यादि विचार करता हुआ राजा वैश्रवण , अपने घर लौट आया और वहां पुत्रको राज्य दे किसी वनमें पहुंचकर श्रीनाग नामक मुनिराजके पास दीक्षित हो गया। वहां उसने उग्र तपस्यासे
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- मायामा