________________
* चौबीस तीथतर पुराण*
भगवान धर्मनाथ धर्मेयस्मिन् समद्भूता, धर्मादश सुनिर्मलाः ।
सधर्मः शर्ममे दद्या, दधर्म मप हत्यनः ॥ - ' 'जिन धर्मनाथमें उत्तम क्षमा आदि निर्मल दश धर्म प्रकट हुए थे वे धर्म नाथ स्वामी मेरे अधर्मको दुष्कृत्यको हरकर सुख प्रदान करें।'
[१] पूर्वभव वर्णन पूर्व धातकी खण्डमें पूर्व दिशाकी ओर सीता नदीके दाहिने किनारेपर एक ॥ सुसीमा नामका नगर है उसमें किसी समय दशरथ नामका राजा राज्य करता I. था। वह बहुत ही बलवान् था। उसने समस्त शत्रुओंको जीत कर अपने । राज्यकी नीव अधिक मजबूत कर ली थी। उसका प्रताप और पंश सारे संसारमें फैल रहा था।
एक दिन चैत्र शुक्ला पूर्णिमाके दिन नगरके समस्त लोग वसन्तका उत्सव मना रहे थे। राजा भी उस उत्सवसे वश्चित नहीं रहा। परन्तु सहसा चन्द्र ग्रहण देखकर उसका हृदय विषयोंसे विरक्त हो गया। वह सोचने लगा कि 'जब राजा चन्द्रमा पर ऐसी विपत्ति पड़ सक्ती है तब मेरे जैसे क्षुद्र नर कीटों . पर विपत्ति पड़ना असम्भव नहीं है। मैं आज तक अपने शुद्ध बुद्ध स्वभावकों
छोड़कर व्यर्थ ही विषयों में उलझा रहा । हा ! हन्त ! अब मैं शीघ्र ही बुडापा । आनेके पहले ही आत्म कल्याण करनेका यत्न करूंगा-धनमें जाकर जिन दीक्षा धारण करूंगा' ऐसा सोचकर महाराज दशरथने जब अपने विचार राजसभामें
प्रकट किये तब एक मिथ्यादृष्टी मन्त्री बोला-नाथ ! भूत चतुष्टय [ पिषी, | जल, अग्नि, वायु] से बने हुए इस शरीरको छोड़ कर आत्मा नामका कोई
पदार्थ नहीं है। यदि होता तो जन्मके पहले और मृत्युके पश्चात दिखता क्यों
नहीं ? इसलिये आप ढोंगियोंके प्रपञ्चमें आकर वर्तमानके सुख छोड़ व्यर्थ ही | जालोंमें कष्ट मत उठाइये। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो गायके स्तनोको छोड़
कर उसके सींगों से दूध दुहेगा' मन्त्रीके -बचन सुनकर राजाने कहा ! सचिव