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* चौबीस तीर्थकर पुराण
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वर्तीने प्रसन्न होकर कृतमालको वापिस किया और स्वयं दण्ड रत्नसे गुफाके द्वारका उद्घाटन किया। द्वारका उद्धाटन करते ही जव उसमेंसे चिर संचित ऊष्मा-गर्मी निकलने लगो । तब उन्होंने सेनातिसे कहा कि 'जवनक यहांकी ऊष्मा शान्त होती है तबतक तुम पश्चिम खण्डपर विजय प्राप्त करो'। चक. वर्तीकी आज्ञानुसार सेनापति अश्व रत्नपर सवार हो कुछ सनाके साथ पश्चिम की ओर आगे बढ़ा । उस समय उसके आगे दण्ड रत्न भी चल रहा था। याद रहे कि भरतका सेनापति हस्तिनापुरके राजा सोमप्रमका पुत्र जयकुमार था । वह बड़ा वीर, बहादुर और निर्मल बुद्धि वाला था। जयकुमारने दण्ड रत्नसे गुहा द्वारका उद्घाटन किया। पहले द्वारके समान उसमेंसे भी ऊष्मादाह निकलने लगी पर उसने उसकी परवाह नहीं की। वह अश्व रत्नरर सवार हो शीघतासे आगे निकल गया । देवोंकी सहायतासे उसकी समस्त सना भी कुशलता पूर्वक आगे निकल गई। इस प्रकार सेनापति समस्त सेनाके साथ विजया गिरिको तटवेदिकाको पारकर सिन्धु नदीकी पश्चिम वेदिकाके तोरण द्वारसे म्लेच्छ खण्डों में जा पहुंचा। वहां उसने घूम-घूमकर समस्त म्लेच्छ खण्डोंमें चकवर्ती का शासन प्रतिष्ठापित किया। फिर म्लेच्छ राजा और उनकी सेनाके साथ वापिस ओकर पहली गुहाके द्वारका निरीक्षण किया। सेनापतिको म्लेच्छ खण्डोंके जीतने में जितना (छह माहका ) समय लगा था उतने समयतक गुहा द्वारकी ऊष्मा शान्त हो चकी थी। गुहामें प्रवेश करनेके उपाय सोचकर विजयी जयकुमार चकूवीसे आ मिला । चकूवर्ती भरतने उसका बहुत सन्मान किया जयकुमारने साथमें आये हुए म्लेच्छ राजाओंका चक्रवर्तीसे परिचय कराया।
इसके अनन्तर सम्राट भरत समस्त सेनाके साथ उस गुहाद्वारमें,प्रवृष्ट हुए । सेनापति और पुरोहित गुफाकी दोनों दीवालोंपर काकिणी रत्न घिसते जाते थे जिसले उस तभित्र गुफामें सूर्य चन्द्रमाके प्रकाशकी तरह प्रकाश फैलता जाता था। गुहाका आधा मार्ग तय करनेपर उन्हें निमन्ना और उन्मन्ना नामको नदियां मिलीं। निमन्ना नदी हर एक पदार्थको डबा देतो थी और उन्मन्ना नदी डबे हुए पदार्थको ऊपर ला देती थी। स्थपति रत्नने दोनों नदियों के पुल तैयार कर दिये थे। चक्रवर्ती समस्त सेनाके साथ उन्हें पार कर आगे
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