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* चौबीस तीथङ्कर पुराण
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ग्रहण करते और बाईस पक्ष वाद एक बार श्वास लेते थे। उन्हें जन्मसे ही अवधि ज्ञान था, वे तीनों लोकोंमें इच्छानुसार घूम सकते थे। इस तरह वहां चिरकाल तक स्वर्गीय सुख भोगते रहे।
- धीरे धीरे उनकी बाईस सागर प्रमाण आयु समाप्त हो गई पर उन्हे कुछ पता नहीं चला। ठीक कहा है-'साता उदै न लख परै केता बीता काल'। वहां से चयकर वह पूर्व धातकी खण्डमें सीता नदीके दक्षिण तट पर स्थित मङ्गलावती देशके रत्न सञ्चयपुर नगरमें राजा कनकप्रभ और रानी कनकमालाके पद्मनाभ नामका पुत्र हुआ। पद्मनाभ बड़ा ही तार्किक-न्याय शास्त्रका वेत्ता था। उसके बल-पौरुषकी सब ओर प्रशंसा छाई हुई थी।
एक दिन कनकप्रभ महाराज मकानकी छतपर बैठकर नगरकी शोभा देख रहे थे कि उनकी दृष्टि सहसा एक पल्वल-स्वल्प-जलाशय पर पड़ी । नगरके बहुतसे बैल उसमें पानी पी पी कर बाहर निकलते जाते थे। उसीमें एक बूढ़ा बैल भी पानी पीनेके लिये गया पर वह पानीके पास पहुंचनेके पहले ही कीचड़ में फंस गया। असमर्थ होनेके कारण वह कीचड़से बाहर नहीं निकल सका जिससे वह प्यासा बैल वहीं तड़फड़ाने लगा। उसकी वेचैनी देखकर कनकप्रभ महाराजका हृदय विषय भोगोंमें अत्यन्त विरक्त हो गया जिससे वे पद्मप्रभको राज्य देकर श्रीधर मुनिराजके पास दीक्षा ले तपस्या करने लगे।
इधर पद्म नाभने नीति पूर्वक राज्य करना प्रारम्भ कर दिया। उसकी अनेक राजकुमारियोंके साथ शादी हुई थी जिनमें सोमप्रभा मुख्य थी । कालक्रमसे सोमप्रभाके सुवर्णनाभि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। उन सबसे पद्मप्रभ नामका गार्हस्थ्य जीवन बहुत ही सुखमय हो गया था। . एक दिन राजा पद्मनाभ सभामें बैठे हुए थे कि बनमालीने आकर उन्हें मनोहर नामक उद्यानमें श्रीधर मुनिराजके आगमनका शुभ समाचार सुनाया। राजाने प्रसन्न होकर बनमालीको बहुत कुछ पारितोषिक दिया और सिंहासन से उतर कर जिस ओर मुनिराज विराजमान थे उस ओर सात कदम आगे जाकर उन्हें परोक्ष नमस्कार किया। उसी समय मुनि बन्दनाको चलनेके लिये नगरमें भेरी बजवाई गई । जब समस्त पुरवासी उत्तम उत्तम वस्त्र आभूषण