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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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उनका मन बहलाते रहते थे। इस तरह हर्ष पूर्वक राज्य करते हुए जय उन्हें तीस लाख वर्ष हो गये तब वे एक दिन उषाकालमें किसी पर्वतकी शिखरपर आरूढ़ होकर सूर्योदयकी प्रतीक्षा कर रहे थे उस समय उनकी दृष्टि सहसा घासपर पड़ी हुई ओसपर पड़ी। वे उसे प्रकृतिकी अद्भुत दैनगी समझकर बड़े प्यारसे देखने लगे। उसे देखकर उन्हें सन्देह होने लगा कि यह हरी भरी मोतियोंकी खेती है ! या हृदय वल्लभ चन्द्रमाके गाढ़ आलिङ्गनसे टूटकर बिखरे हुए निशा प्रेयसीके मुक्ताहारके मोती हैं। या चकवा चकवीकी विरह वेदना. से दुःखी होकर प्रकृति महा देवीने दुःखसे आंसू छोड़े हैं ? या विरहणी नारियों पर तरस खाकर कृपालु चन्द्र महाराजने अमृत वर्षा की है ? या मदनदेवकी निर्मल कीर्ति रूपी गङ्गाके जल कण विखरे पड़े हैं। इस तरह भगवान विमल नाथ बड़े प्रेमसे उन हिमकणोंको देख रहे थे । इतनेमें प्राची दिशासे सूर्यका उदय हो आया। उसकी अरुण प्रभा समस्त आकाशमें फैल गई। धीरे-धीरे उसका तेज बढ़ने लगा । विमलनाथ स्वामीने अपनी कौतुक भरी दृष्टि हिमकणोंसे उठाकर प्राचीकी ओर डाली। सूर्यके अरुण तेजको देख कर उन्हें बहुत ही आनन्द हुआ पर प्राचीकी ओर देखते हुए भी वे उन हिमकणोंको भूले नहीं थे। उन्होंने अपनी दृष्टि सूर्यसे हटाकर ज्योंही पासकी घासपर डाली त्योंही उन्हें उन हिमकणोंका पता नहीं चला। क्योंकि वे सूर्यकी किरणोंका संसर्ग पाकर क्षण एकमें क्षितिमें विलीन हो गये थे। इस विचित्र परिवर्तनसे उनके दिलपर भारी ठेस पहुंची। वे सोचने लगे मि मैं जिन हिम कणोंको एक क्षण पहले सतृष्ण लोचनोंसे देख रहा था अब द्वितीय क्षणमें उनका पता नहीं है। क्या यही संसार है ? संसारके प्रत्येक पदार्थ क्या इसी तरह भंगुर है ?
ओह ! मैं अब तक देखता हुआ भी नहीं देखता था। मैं भी सामान्य मनुप्योंकी तरह विषय वासनामें बहता चला गया । खेद ! आज मुझे इन हिमकणोंसे, ओसकी बूंदोसे दिव्य नेत्र प्राप्त हुए हैं। मैं अप अपना कर्तव्य निश्चय कर चुका। वह, यह है कि मैं बहुत शीघ्र इस भंगुर संसारसे नाता ॥ तोड़कर अपने आप समा जाऊ । उसका उपाय दिगम्बर मुद्राको छोड़कर और कुछ नहीं है। अच्छा तो अब मुझे राज्य छोड़कर इसी निर्मल नीले