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* चौबीम तीर्थङ्कर पुराण
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कन्याओंके साथ हुआ था जिससे उनका गार्हस्थ्य जीवन यहुत ही सुखमय हो गया था।
जब राज्य करते करते उनकी आयुके छह लाख पचास हजार पूर्व और चौबीस पूर्वाङ्ग क्षण एकके समान निकल गये तब वे किसी एक दिन वस्त्राभूषण पहिननेके लिये अलङ्कार गृहमें गये। वहां ज्योंही उन्होंने दर्पणमें मुंह देखा त्योंही उन्हें मुंहपर कुछ विकार सा मालूम हुआ जिससे उनका हृदय विरक्त हो गया । वे सोचने लगे-"यह शरीर प्रतिदिन कितना ही क्यों न सजाया जाय पर काल पाकर विकृत हुए विना नहीं रह सकता। विकृत होने की क्या बात ? नष्ट ही हो जाता है । इस शरीरमें राग रहनेसे इससे संबंध रखने वाले और भी अनेक पदार्थोंसे राग करना पड़ता है । अब मैं ऐसा काम करूंगा जिससे आगेके भवमें यह शरीर प्राप्त ही न हो।" उसी समय देवर्षि लौकान्तिक देवोंने भी आकर उनके विचारोंका समर्थन किया।
भगवान चन्द्रप्रभ अपने वर चन्द्रपुत्रके लिये राज्य देकर देवनिर्मित विमला पालकीपर सवार हो सर्वतुक नामके वनमें पहुंचे और वहां सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर पौष कृष्ण एकादशीके दिन अनुराधा नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ निर्ग्रन्थ मुनि हो गये। उन्हें दीक्षाके समय ही मनः पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। वे दो दिन बाद आहार लेनेको इच्छासे नलिनपुर नगरमें गये वहां महाराज सोमदत्तने पड़गाह कर उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक आहार दिया। पात्र दानके प्रभावसे देवों ने सोमदत्तके घर पंचाश्चर्य प्रकट किये । मुनिराज चन्द्रप्रभ नलिनपुरसे लौटकर वनमें फिर ध्यानारूढ़ हो गये। इस तरह छद्मस्थ अवस्थामें तप करते हुए उन्हें तीन माह बीत गये । फिर उसी सर्वतुक वनमें नाग वृक्षके नीचे दो दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा कर विराजमान हुए वहीं उन्होंने क्षपक. श्रेणी माढ़कर मोहनीय कर्मका नाश किया
और शुक्ल ध्यानके प्रतापसे शेष तीन घातिया कर्मोका भी नाश कर दिया। जिससे उन्हें फाल्गुन कृष्ण सप्तमी अनुराधा नक्षत्रमें शामके समय दिव्य ज्योति-लोकालोक प्रकाशक केबल, ज्ञान प्राप्त हो गया था। देवोंने आकर ज्ञान कल्याणकका उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञा पाकर कुवेरने वहींपर समवसरण