________________
* चौबीस तीर्थकर पुराण *
१४३
नाथके मुखसे स्वप्नोंका फल सुनकर रानी जयरामा हर्षसे फूली न समाती थी । जब धीरे-धीरे गर्भका समय पूरा हो गया तब उसने मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदाके दिन उत्तम पुत्र उत्पन्न किया । उसी समय इन्द्रादि देवोने आकर मेरु पर्वत पर क्षीर सागर के जलसे उस गद्य-प्रभूत बालकका जन्माभिषेक किया और पुष्पदन्त नाम रखा । उधर महाराज सुग्रीवने भी खुले दिलसे पुत्रोत्पत्तिका उत्सव मनाया। वालक पुष्पदन्त बाल इन्द्रकी तरह क्रम-क्रम से बढ़ने लगे ।
भगवान् चन्द्रप्रभके मोक्ष जानेके बाद नव्बे करोड़ सागर बीत जानेपर भगवान् पुष्पदन्त हुए थे । इनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल है । पुष्पदन्तकी आयु दो लाख पूर्वकी थी. शरीरकी ऊंचाई सौ धनुषकी थी और लेश्या कुन्द के फूलके समान शुक्ल थी । जब उनकी कुमार अवस्थाके पचास हजार पूर्व बीत गये थे तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ था । राज्यकी बागडोर ज्यों ही भगवान् पुष्पदन्तके हाथमें आई त्योंही उसकी अवस्था बिलकुल बदल गई थी । उनका राज्य क्षेत्र प्रतिदिन बढ़ता जाता था । उनके मित्र राजाओंकी संख्या न थी, प्रजा हरएक प्रकारसे सुखी थी । भगवान पुष्पदन्तका जिन कुलीन कन्याओंके साथ विवाह हुआ था उनकी रूप राशि और गुणगरिमाको देखकर देव बालाएं भी लज्जित हो जाती थीं । राज्य करते हुए जब उनके पचास हजार पूर्व और अट्ठाईस पूर्वाङ्ग और भी व्यतीत हो गये तब किसी एक दिन उल्कापात देखनेसे उनका हृदय विरक्त हो गया । वे सोचने लगेइस संसार में कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है। सूर्योदयके समय जिस वस्तुको देखता हूँ उसे सूर्यास्त के समय नहीं पाता हूँ । जिस तरह इन्धनसे कभी अनि सन्तुष्ट नहीं होनी उसी तरह पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे मानव अभिलाषाए कभी सन्तुष्ट नहीं होतीं - पूर्ण नहीं होतीं । खेद है कि मैंने अपनी विशाल आयु साधारण मनुष्यों की तरह योंही विता दी । दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर मैने उनका अभीतक सदुपयोग नहीं किया । आज मेरे अन्तरंग नेत्र खुल गये हैं जिससे मुझे कल्याणका मार्ग स्पष्ट दिख रहा है । वह यह है कि समस्त परिवार एवं राज्य कार्यसे त्रियुक्त हो निर्जन बनमें बैठकर आत्म ध्यान करूं । लौकान्तिक देवोंने भी आकर उनके विचारोंका समर्थन किया जिससे उनका
,