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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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हुआ। खेद है -कि मैंने अपनी आयुका बहुत भाग यूं हो विता दिया। पर आज मेरे अन्तरङ्ग नेत्र खुल गये हैं, आज मेरे हृदयमें दिव्य ज्योति प्रकाश डाल रही है। उसके प्रकाशमें भी क्या अपना हित न खोज सकूँगा? बस, बस खोज लिया मैंने हितका मार्ग । वह यह है कि मैं बहुत जल्दी राज्य के जलालसे छुटकारा पाकर मुनि दीक्षा धारण करू और किसो निर्जन वनमें रहकर आत्म भाण्डारको शान्ति-क्षुधासे भर दूं।" ऐसा विचार कर महाराज पद्मगुल्म.बनसे घर वापिस आये और वहां चन्दन नामके पुत्रके लिये राज्य देकर पुनः वनमें पहुंच गये । वहां उन्होंने किन्हीं आनन्द नामक आचार्यके पास जिन दीक्षा ले ली। ___ अब मुनिराज पद्मगुल्म निर्जन वनमें रहकर आत्म शुद्धि करने लगे। गुरुदेवके चरण कमलोंके पास रहकर उन्होंने ग्यारह अङ्गोतकका ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थंकर नामक महापुण्य प्रकृतिका बन्ध किया। जव आयुका अन्तिम समय आया तब वे वाह्य पदार्थोसे सर्वथा मोह छोड़कर समाधिमें स्थित हो गये जिससे मरकर पन्द्रहवे आरण स्वगैमें इन्द्र हुए। वहां उनकी आयु वाईस सागरकी थी, तीन हाथका शरीर था, शुक्ल लेश्या थी, ग्यारह माह बाद सुगन्धित श्वासोच्छास होता और वाईल माम वाद मानसिक आहार होता था हजारों देवियां थीं, मानसिक प्रविचार था, अणिमा आदि आठ ऋद्धियां थीं और जन्मसे ही अवधि ज्ञान था। वहां उनका समय सुखसे वीतने लगा। यही इन्द्र आगे भवमें भगवान शीतलनाथ होंगे। ।
(२) वर्तमान परिचय जब वहां उनकी आयु सिर्फ छह माहकी बाकी रह गई और वे पृथिवीपर जन्म लेनेके लिये तत्पर हुए तब इसी जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्रमें मलय देशके भद्रपुर नगरमें इक्ष्वाकुवंशीय दृढ़रथ नामके राजा राज्य करते । उनकी महारानीका नाम सुनन्दा था। भगवान शीतलनाथके गर्भ में आनेके छह माह पहलेसे ही देवोंने दृढ़रथ और सुब्रताके घरपर रत्नोंकी वर्षा करनी शुरू कर दी। चैत्र कृष्ण अष्टमीके दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रमें महारानी सुनन्दाने रात्रिके
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