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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
वर्माके पास दूत भेजकर संदेशा कहलाया कि तुमने जो एक विदेशी लड़केके साथ शशिप्रभाकी शादी करना स्वीकार कर लिया है वह ठीक नहीं है क्योंकि जिसके कुल, बल, पौरुष वगैरहका कुछ भी पता नहीं है उसके साथ लड़की की शादी कर देने से सिवाय अपयशके कुछ भी हाथ नहीं लगता इसलिये तुम शीघ्र ही शशिप्रभाका विवाह मेरे साथ कर दो" जयवर्माने 'चाहे कुलीन हो या अकुलीन' दी हुई कन्या फिर किसी दूसरेको नहीं दी जा सकती' कह कर इनको वापिस कर दिया और लड़ाईकी तैयारी करनी शुरू कर दी।
जयवर्माको युद्धके लिये चिन्तित देख कर युवराज अजितसेनने कहा कि 'आप मेरे रहते हुए जरा भी चिन्ता न कीजियेगा मैं इन गीदड़ोंको अभी मार कर भगाये देता हूँ, ऐसा कहकर युवराजने हिरण्यक देवका जिसका कि पहले अटवीमें वर्णन कर चुके हैं स्मरण किया । स्मरण करते ही वह दिव्य अस्त्र शस्त्रोंसे भरा हुआ एक रथ लेकर युवराजके पास आ गया । समस्त नगर वासियोंको आश्चर्यसे चकित करते हुए युवराज अजितसेन उस रथ पर सवार हुए। हिरण्यक देव चतुराई पूर्वक रथको चलाने लगा। विद्याधरेन्द्र धरणी-ध्वज
और कुमार अजित सेनकी जमकर लड़ाई हुई। अन्तमें कुमारने उसे मार दिया जिससे उसकी समस्त सेना भाग खड़ी हुई। कार्य हो चुकने पर युवराजने सम्मान पूर्वक हिरण्यक देवको विदा किया और धूम धामसे नगरमें प्रवेश किया। कुमारकी अनुपम वीरता देखकर समस्त पुरवासी हर्षसे फूले न समाते थे । राजाजयवर्माने किसी दिन शुभ मुहूर्तमें युवराजके साथ शशि.. प्रभाका विवाह कर दिया। विवाहके बाद युवराज कुछ दिन तक वहीं रहे आये और शशिप्रभाके साथ अनेक काम कौतूहल करते रहे। फिर कुछ दिनों बाद अयोध्या पुरी वापिस आ गये। पिता अजितंजयने बधू सहित आये हुये पुत्रका बड़े उत्सवके साथ नगरमें प्रवेश कराया। पुत्रकी वीर चेष्टाए सुन सुनकर माता पिता बहुत ही हर्षित होते थे।
किसी एक दिन अशोक नामके बनमें स्वयं प्रम तीर्थङ्करका समवसरण आया । बनमालीसे जब राजाको इस बातका पता चला तब वे शीघ्र ही तीर्थश्वरकी बन्दनाके लिये गये। वहां जाकर उन्होंने आठ प्रातिहार्योंसे शोभित
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