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* चौवीस तीर्थङ्कर पुराण *
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वर्ती की सेनाके साथ लड़ने के लिये और कोई उपाय नहीं था। अन्तमें हार मानकर वे चक्रवर्तीसे मिलनेके लिये आये और साथमें अनेक मणि, मुक्ता, आदिका उपहार लाये । सम्राट भरत म्लेच्छ राजाओं से मित्रकी तरह मिले। भरतका सद्व्यवहार देखकर वे पराजित होनेका दुःख भूल गये और कुछ देर तक अनुनय विनय करनेके बाद अपने स्थानपर चले गये। इसके अनन्तर भरतजी समस्त सेनाके साथ हिमवत् पर्वतकी ओर गये । वहां मार्गमें सिंधु देवीने अभिषेककर उन्हें एक उत्तम सिंहासन भेंट किया। कुछ दिनोंतक गमन करनेके बाद वे हिमवत पर्वतके उपकण्ठ-समीपमें पहुंच गये। वहां उन्होंने पुरो हितके साथ उपवास करके चक्ररत्नकी पूजा की नथा और भी अनेक मन्त्रोंकी आराधना की। फिर हाथ में बजमय धनुष लेकर हिमवत् पर्वतकी शिखरको लक्ष्य कर अमोघ बाण छोड़ा। उसके प्रतापसे वहां रहने वाला देव नम्र होकर चक्रवर्ती से मिलने आया ओर साथमें अनेक वस्त्राभूषणोंकी भेंट लाया । चक्रवर्तीने उसके नम्र व्यवहारसे प्रसन्न होकर उसे विदा किया। वहांसे लौटकर वे वृषभाचल पर्वतपर पहुंचे। वह पर्वत श्वेत रंगका था इसलिये ऐसा मालूम होता था मानो चक्रवर्तीका इकट्ठा हुआ यश ही हो। सम्राट भरतने वहां पहुच कर अपनी कीर्ति प्रशस्त लिखनी चाही पर उन्हें वहां कोई ऐमा शिला तल खाली नहीं मिला जिसपर किसीका नाम अङ्किन न हो । अबतक दिग्वि जयी भानका हृदय अभिमानसे फूला न समाना था पर ज्योंही उनकी दृष्टि असंख्य राजाओंको प्रशस्तियोंपर पड़ो त्योंहो उनका समस्त अभिमान दूर हो गया। निदान, उन्होंने एक शिलापर दूसरे राजाकी प्रशस्ति मिटाकर अपनो प्रशस्ति लिख दो। मच है-संसारके समस्त प्राणो स्वार्थ साधन में तत्पर हुआ करते हैं। वृषभाचलसे लौटकर वे गङ्गा द्वार पर आये' वहां गङ्गादेवीने अभिषेक कर उन्हें अनेक रत्नोंके आभूषण भेंट किये । वहांसे भी लौटकर वे विजया गिरिके पास आये। वहां गुहा द्वार का उद्घाटन कर प्राच्य खण्डकी विजय करने के लिये सेनापति जयकुमारको भेजा और आप वहीं पर छह माह तक सुम्बसे ठहरे रहे । इसी वीवमें विद्याधरोंके राजा नमि, विननि अनेक उपहार लेकर चक्रवर्ती से भेंट करनेके लिये आये । चक्रवर्तीके सद्व्यवहारसे