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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
शोभायमान त्रिभुवनपति वृषभ जिनेन्द्र धर्म क्षेत्रोंमें धर्मका बीज बोकर और उपदेशामृतकी वृष्टिसे उसे सींचकर पौष मासके पूर्णमासीके दिन चिरपरिचित कैलाश पर्वतपर पहुंचे। वहां उन्होंने योगनिरोध किया, समवसरण में बैठना छोड़ दिया, उपदेश देना बन्द कर दिया। सिर्फ मेरु की तरह अचल होकर आत्म ध्यान में लीन हो गये । जिस दिन वृषभदेव ने योग निरोध किया था उसी दिन भरत ने स्वप्न में लोक के अन्त तक लम्बायमान मन्दराचल देखा, युवराज ने, भवरोग नष्ट करने के बाद महौषधि को स्वर्ग जाने के लिए उद्यत देखा, गृहपतिने सकल नर समूह को मनवाञ्छित फल देकर स्वर्ग जाने के लिये तैयार हुये कल्पवृक्ष को देखा, प्रधान मन्त्री ने याचकों के लिये अनेक रत्न देकर आगे जाते हुए रत्नद्वीपको देखा और सुभद्रा देवीने महादेवी यशस्वती और सुनन्दाके साथ शोक करती हुई इन्द्राणीको देखा। जब भरतने पुरोहितसे स्वप्नोंका फल पूछा तब उसने कहा 'ये सब स्वप्न देवाधि देव वृषभनाथके निर्वाण प्रस्थानको बतला रहे हैं' इतनेमें ही आज्ञाकारी 'आनन्द' ने आकर भरतसे भगवान्के योग निरोधका सब समाचार कह सुनाया। चक्रवर्ती भरत उसी समय समस्त परिवारके साथ कैलाश गिरि पर पहुंचे और वहां चौदह दिन तक त्रिलोकी नाथ की पूजा करते रहे।
त्रिलोकीनाथ धीरे धीरे अपने मन को बाह्यजगत से हटाकर अन्तरात्मा में लगाते जाते थे। उस समय में कैलाश के शिविर पर पूर्व दिशा की ओर पल्यंकासन से बैठे हुए थे। उनके शरीर में एक रोमाञ्च भी हिलता हुआ नजर नहीं आता था । सब देव विद्याधर मनुष्य वगैरह हाथ जोड़े हुये चुपचाप वहाँ बैठे थे । वह दृश्य कितना शान्ति मय न होगा ? योग निरोध किये हुये जब तेरह दिन ममाप्त हो गये और माघ कृष्णा चतुर्दिशीका मनुल प्रभान आया, प्राची दिशामें लालिमा फैल गई तब उन्होंने शुक्ल ध्यान रूप खंगके प्रथम प्रहारसे वहत्तर कर्म शत्रुओंको धराशायी बना दिया। अब आप नेरहवें गुणस्थानसे चौदहवें गुण स्थानमें पहुंच गये। वहां पहुंचकर वे अयोग केवली कहलाने लगे । उस समय उनके न बचन योग था, न काय योग थान मनो. योगथा। उनके इस अन्त परिवर्तनका वाह्य लोगोंको क्या लगता ? वे तो उन्हें
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